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________________ २४८ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध हो तो वह साधु के साथ ऐसा व्यवहार नहीं कर सकता। अतः उसके भाषण करने के ढंग से उसकी अनभिज्ञता प्रकट होती है और साधु के मौन रहकर उसके आदेश को अस्वीकार करने के पीछे एकमात्र प्राणी जगत की रक्षा एवं संयम साधना को विशुद्ध रखने का भाव स्पष्ट होता है। क्योंकि, यदि साधु छत्र, शस्त्र आदि धारण करेगा तथा नाविक के बच्चों को पानी पिलाएगा या उसके ऐसे ही अन्य कार्य करेगा तो उसमें त्रस एवं स्थावर अनेक जीवों की हिंसा होगी और परिणाम स्वरूप उसकी संयम साधना भी टूट जाएगी। अतः साधु को नाविक के आदेशानुसार कार्य नहीं करना चाहिए, परन्तु मौन भाव से उसे अस्वीकार करके अपनी आध्यात्मिक साधना में व्यस्त रहना चाहिए। __नाविक का कार्य न करने पर यदि कोई नाविक क्रुद्ध होकर साधु के साथ दुष्टता का व्यवहार करे, उसे उठाकर नदी की धारा में फैंक दे तो उस समय साधु को क्या करना चाहिए। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम्- से णं परो नावागए नावागयं वएज्जा-आउसंतो ! एस णं समणे नावाए भंडभारिए भवइ, से णं बाहाए गहाय नावाओ उदगंसि पक्खिविजा, एयप्पगारं निग्घोसं सुच्चा निसम्म से य चीवरधारी सिया खिप्पामेव । चीवराणि उव्वेढिज वा निवेढिज वा उप्फेसं वा करिज्जा, अह अभिक्कंतकूरकम्मा खलु बाला बाहाहिं गहाय ना० पक्खिविजा से पुव्वामेव वइज्जाआउसंतो ! गाहावई मा मेत्तो बाहाए गहाय नावाओ उदगंसि पक्खिवह, सयं चेवणं अहं नावाओ उदगंसि ओगाहिस्सामि, से णेवं वयंतं परो सहसा बलसा बाहाहिं ग० पक्खिविज्जा तं नो सुमणे सिया, नो दुम्मणे सिया, नो उच्चावयं मणं नियंछिज्जा नो तेसिं बालाणं घायए वहाए समुट्ठिज्जा, अप्पुस्सुए जाव समाहीए तओ सं० उदगंसि पविज्जा॥१२१॥ छाया- स परो नौगतः नौगतं वदेत्-आयुष्मन् ! एष श्रमणः नावि भाण्डभारो भवति, तदेनं बाहुभ्यां गृहीत्वा नावः उदके प्रक्षिपत एतत् प्रकारं निर्घोषं श्रुत्वा निशम्य स च चीवरधारी स्यात्, क्षिप्रमेव चीवराणि उद्वेष्टयेद् वा निर्वेष्टयेद् वा, उप्फेसं-शिरोवेष्टनं वा कुर्यात्, अथ पुनरेवं जानीयाद् अभिक्रान्तक्रूरकर्माणः खलु बालाः बाहुभ्यां गृहीत्वा नाव: उदके प्रक्षिपेयुः स पूर्वमेव वदेत्-आयुष्मन् गृहपते ! मा मां, इतो बाहुभ्यां गृहीत्वा नावः उदके प्रक्षिपत ! स्वयं चैव अहं नावः उदके अवगाहिष्ये तम् एवं वदन्तं परः सहसा बलेन बाहुभ्यां गृहीत्वा नावः उदके प्रक्षिपेत् तदा न सुमनाः स्यान्न दुर्मनाः स्यान्न उच्चावचं मनः नियच्छेन्न तेषां बालानां घाताय वधाय समुत्तिष्ठेद् अल्पोत्सुकः यावत् समाधिना ततः संयतमेव उदके प्लवेत।
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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