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________________ २३६ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध जिसका अभी राज्याभिषेक नहीं हुआ हो। दोरजाणि वा-अथवा जिस देश में दो राजाओं का शासन हो अथवा। वेरजाणि वा-परस्पर राजकुमारों का जहां वैर-विरोध हो अथवा। विरुद्धरजाणि वा-जहां राजा और प्रजा का आपस में विरोध हो तो। सइ लाढे विहाराए संथ० जण-अन्य किसी विहार के योग्य देश के होने पर साधु। नो विहारवडियाए०-उक्त स्थानों में विचरने का संकल्प न करे क्योंकि। केवली बूया-केवली भगवान कहते हैं कि।आयाणमेयं-ये कर्म बन्धन के कारण हैं। णं-यह वाक्यालंकार में है। ते बाला-वे अज्ञानी पुरुष।तंचेवपूर्ववत्। जाव-यावत्। गमणाए-जाने के लिए संकल्प न करे। तओ-तदनन्तर अन्य देश में। संजया०-साधु यलापूर्वक। गा०-ग्रामानुग्राम। दू-विहार करे। मूलार्थ-साधु या साध्वी विहार करते हुए जिस देश में राजा का शासन नहीं है, अथवा अशांतियुक्त गणराज्य है, अथवा केवल युवराज है, जो कि राजा नहीं बना है, दो राजाओं का शासन चलता है, या दो राजकुमारों में परस्पर वैर-विरोध है, या राजा तथा प्रजा में परस्पर विरोध है, तो विहार के योग्य अन्य प्रदेश के होते हुए इस प्रकार के स्थानों में विहार करने का संकल्प न करे। साधु को विहार योग्य अन्य स्थानों में विहार करना चाहिए शेष वर्णन पूर्ववत् समझें। हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि जिस राज्य में राजा न हो या जिस राज्य में या गणतन्त्र में अशान्ति हो, कलह हो, राज्य प्रबन्ध ठीक न हो, राजा और प्रजा में संघर्ष चल रहा हो, एक ही प्रदेश के दो राजा या दो राजकुमार शासक हों और दोनों में संघर्ष चल रहा हो तो ऐसे देश में साधु को नहीं जाना चाहिए। क्योंकि उसे किसी देश का गुप्तचर आदि समझकर वे उसके साथ दुर्व्यवहार कर सकते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि उस युग में भारत में गणराज्य की व्यवस्था भी थी। काशी और कौशल में मल्ल और लिच्छवी जाति के क्षत्रियों का गणराज्य था। इससे यह भी सिद्ध होता है कि उस समय भी भारत कई प्रान्तों (देशों) में विभक्त था, जिनमें अलग-अलग राजाओं का शासन था और एकदूसरे देश के राजा सीमाओं आदि के परस्पर संघर्ष भी करते रहते थे। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम्- से भिक्खू वा गा दूइज्जमाणे अंतरा से विहं सिया, से जं पुण विहं जाणिज्जा एगाहेण वा दुआहेण वा तिआहेण वा चउआहेण वा पंचाहेण वा पाउणिज वा नो पाउणिज वा तहप्पगारं विहं अणेगाहगमणिजं सइ लाढे जाव गमणाए, केवली बूया आयाणमेयं, अतंरा से वासे सिया पाणेसु वा पणएसु वा बीएसु वा हरि० उद मट्टियाए वा अविद्धत्थाए, अह भिक्खूजंतह. अणेगाह जाव नो पव० तओ सं० गा• दू०॥११७॥ छाया- स भिक्षुर्वा ग्रामानुग्रामं गच्छन्, अन्तराले तस्य विहं स्यात्, स यत् पुनः विहं जानीयात् एकाहेन वा स्यहेन वा त्र्यहेन वा चतुरहेण वा पंचाहेन वा प्रापणीयं वा नो प्रापणीयं वा तथाप्रकारं विहं अनेकाहगमनीयं सति लाढे यावद् गमनाय, केवली ब्रूयात् आदानमेतत्
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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