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तृतीय अध्ययन, उद्देशक १
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अन्तराले तस्य वर्षां स्यात् प्राणेषु वा पनकेषु वा बीजेषु वा हरितेषु उदकेषु वा मृत्तिकायां वा अविध्वस्तायां, अथ भिक्षुः यत् तथाप्रकारमनेकाहगमनीयं यावत् न प्रतिपद्येत् ततः संयतः ग्रामानुग्रामं गच्छेत्।
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पदार्थ से भिक्खू वा वह साधु या साध्वीं । गा० - ग्रामानुग्राम। दूइज्जमाणे - विहार करता हुआ । अन्तरा से मार्ग में विहं सिया-अटवी हो तो । से जं- वह भिक्षु जो । पुण- फिर । विहं जाणिज्जा - अटवी के सम्बन्ध में यह जाने कि वह अटवी । एगाहेण वा एक दिन में उल्लंघी जा सकती है। दुआहेण वा दो दिन में या । तिआहेण वा-तीन दिन में या । चउआहेण वा चार दिन में या । पंचाहेण वा पांच दिन में । पाउणिज्ज वाउल्लंघी जा सकती है। नो पाउणिज्ज वा- नहीं उलंघी जा सकती है। तहप्पगारं तथाप्रकार की । विहं अटवी जो कि । अगाहगमणिज्जं - अनेक दिनों में उलंघी जा सकती है तो। सइ लाढे जाव गमणाए - विहार योग्य अन्य प्रदेश के होने पर साधु इस प्रकार की अटवी को उलंघ कर जाने का विचार न करे क्योंकि । केवली बूया - केवली भगवान कहते हैं कि । आयाणमेयं यह कर्म बन्धन का कारण है, क्योंकि । अन्तरा से वासे सिया- उस मार्ग के मध्य में वर्षा हो जाए तो फिर । पाणेसु वा द्वीन्द्रियादि प्राणियों के उत्पन्न होने पर या । पणएसु वा - पांच वर्ण की नीलन फूलन के उत्पन्न होने पर। बीएसु वा बीजों के अंकुरित हो जाने। हरि० - हरियाली के उत्पन्न हो जाने । उद॰-पानी के भर जाने पर या । मट्टियाए वा - सचित्त मिट्टी के उत्पन्न हो जाने से । अविद्धत्थाए - संयम एवं आत्मा की विराधना होगी। अह-अतः । भिक्खूं-भिक्षु साधु । जं तह० तथा प्रकार की अटवी जो । अणेगाह०. अनेक दिनों में उलंघी जा सकती है। जाव - यावत्-उस में जाने के लिए। नो पव० - मन में विचार भी न करे। तओतदनन्तर। सं०-साधु, अन्य विहार करने योग्य । गा० - गांव को । दू०-विहार करे ।
मूलार्थ - साधु या साध्वी ग्रामानुग्राम विहार करता हुआ मार्ग में उपस्थित होने वाली अटवी को जाने, जिस अटवी को एक दिन में, दो दिन में, तीन और चार अथवा पांच दिन में उल्लंघन किया जा सके, अन्य मार्ग होने पर उस अटवी को लांघकर जाने का विचार न करे । केवली भगवान कहते हैं कि यह कर्म बन्धन का कारण है। क्योंकि मार्ग में वर्षा हो जाने पर, द्वीन्द्रियादि जीवों के उत्पन्न हो जाने पर, नीलन- फूलन, एवं सचित्त जल और मिट्टी के कारण संयम की विराधना का होना सम्भव है। इस लिए ऐसी अटवी जो कि अनेक दिनों में पार की जा सके मुनि उसमें जाने का संकल्प न करे, किन्तु अन्य सरल मार्ग से अन्य गावों की ओर विहार करे ।
हिन्दी विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि मुनि को ऐसी अटवी में से होकर नहीं जाना चाहिए जिसे पार करने में लम्बा समय लगता हो। क्योंकि, इस लम्बे समय में वर्षा होने से द्वीन्द्रिय आदि क्षुद्रजन्तुओं एवं निगोदकाय तथा हरियाली आदि की उत्पत्ति हो जाने से संयम की विराधना होगी और कीचड़ आदि हो जाने के कारण यदि कभी पैर फिसल गया तो शरीर में चोट आने से आत्मविराधना भी होगी । और बहुत दूर तक जंगल होने के कारण रास्ते में विश्राम करने को स्थान की प्राप्ति एवं आहार- पानी की प्राप्ति में भी कठिनता होगी। इसलिए मुनि को सदा सरल एवं सहज ही समाप्त होने वाले मार्ग से विहार करना चाहिए।