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________________ तृतीय अध्ययन, उद्देशक १ २२९ प्रवेश करना कठिन हो तथा स्वाध्याय आदि भी न हो सकता हो तो ऐसे ग्रामादि में साधु वर्षाकाल व्यतीत न करे। जिस ग्राम या नगर आदि में विहार और विचार के लिए अर्थात् स्वाध्याय और मलमूत्रादि का त्याग करने के लिए विशाल भूमि हो, पीठ-फलकादि की सुलभता हो, निर्दोष आहारपानी भी पर्याप्त मिलता हो और शाक्यादि भिक्षु या भिखारी लोग भी आए हुए न हों एवं उनकी अधिक भीड़-भाड़ भी न हो तो ऐसे गांव या शहर आदि में साधु-साध्वी वर्षाकाल व्यतीत कर सकता है। . हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में वर्षावास के क्षेत्र को चुनते समय ५ बातों का विशेष ख्याल रखने का आदेश दिया गया है १-स्वाध्याय एवं चिन्तन मनन के लिए विशाल भूमि, २-शहर या गांव के बाहर मल-मूत्र का त्याग करने के लिए विशाल निर्दोष भूमि, ३-साधु-साध्वी के ग्रहण करने योग्य निर्दोष शय्या- तख्त आदि की सुलभता, ४-प्रासुक एवं निर्दोष आहार-पानी की सुलभता और ५शाक्यादि अन्य मत के साधुओं तथा भिखारियों के जमघट का नहीं होना। जिस क्षेत्र में उक्त सुविधाएं न हों वहां साधु को वर्षावास नहीं करना चाहिए। क्योंकि विचार एवं चिन्तन की शुद्धता के लिए शान्तएकान्त स्थान का होना आवश्यक है। बिना एकान्त स्थान के स्वाध्याय एवं ध्यान में मन एकाग्र नहीं हो सकता और मन की एकाग्रता के अभाव में साधना में तेजस्विता नहीं आ सकती। इसलिए सबसे पहले अनुकूल स्वाध्याय भूमि का होना आवश्यक है। • संयम की शुद्धता को बनाए रखने के लिए परठने के लिए भी निर्दोष भूमि, निर्दोष आहारपानी एवं निर्दोष शय्या-तख्त आदि की प्राप्ति भी आवश्यक है और इनकी निर्दोषता के लिए यह भी आवश्यक है कि उस क्षेत्र में अन्यमत के भिक्षुओं का अधिक जमाव न हो। यदि वे भी अधिक संख्या में होंगे तो शुद्ध आहार-पानी आदि की सुलभता नहीं मिल सकेगी। ____ इससे यह भी स्पष्ट होता है कि उस युग में अन्य मत के भिक्षु भी वर्षाकाल में एक स्थान पर रहते थे। और इस सूत्र से यह भी ध्वनित होता है कि उस युग में सांप्रदायिक बाड़े बन्दी भी अधिक नहीं थी। यदि वर्तमान की तरह उस युग में भी जनता संप्रदायों में विभक्त होती तो सूत्रकार के सामने यह प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। क्योंकि, फिर तो साधु अपनी संप्रदाय के भक्तों से संबद्ध मकान में ठहर जाता और उनके यहां उसे किसी तरह की असुविधा नहीं रहती। परन्तु उस समय ऐसी परिस्थिति नहीं थी, गृहस्थ लोग सभी तरह के साधुओं को स्थान एवं आहार आदि देते थे। इसी दृष्टि से साधु के लिए यह निर्देश किया गया कि उसे वर्षावास करने के पूर्व अपने स्वाध्याय की अनुकूलता एवं संयम शुद्धि आदि का पूरी तरह अवलोकन कर लेना चाहिए। क्योंकि वर्षावास जीवों की रक्षा, संयम की साधना एवं ज्ञानदर्शन और चारित्र की आराधना के लिए किया जाता है। अतः इन में तेजस्विता लाने का विशेष ध्यान रखना चाहिए। यदि वर्षाकाल के समाप्त होने के पश्चात् भी वर्षा होती रहे तो साधु को क्या करना चाहिए, इसके लिए सूत्रकार कहते हैं . मूलम्- अह पुणेवं जाणिज्जा-चत्तारि मासा वासावासाणं वीइक्कंता
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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