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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध
यत्· ग्रामे वा यावत् राजधान्यां वा अस्मिन् खलु ग्रामे वा यावत् महती विहारभूमिः, महती विचारभूमिः सुलभानि यत्र पीठ० ४ सुलभः प्रासुकः न यत्र बहवः श्रमण उपागमिष्यन्ति वा अल्पाकीर्णा वृत्तिः यावत् राजधान्यां वा ततः संयतमेव वर्षावासं उपलीयेत ।
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पदार्थ - से भिक्खू वा - वह साधु अथवा साध्वी से जं- यदि वह यह जाने । गामं वा ग्राम को अथवा नगर। जाव-यावत्। रायहाणिं वा राजधानी को । खलु वाक्यालंकार में । इमंसि - इस । गार्मसि - ग्राम । जाव-यावत्। राय०-राजधानी में । विहारभूमी - स्वाध्याय करने के लिए। नो महई - विशाल स्थान नहीं है। वियारभूमी - और नगर से बाहर मल-मूत्रादि के त्याग करने की भूमि भी । न महई - विशाल नहीं है। पीढ-और पीठ। फलग-पाटिया। सिज्जा-शय्या और । संथारगे-तृणादि के संस्तारक भी। नो सुलभे-सुलभ नहीं है और फासुए उसे जो प्रासु । उंछे थोड़ा २ आहार ग्रहण करना है। अहेसणिज्जे उस निर्दोष आहार का मिलना भी । नो सुलभ - सुलभ नहीं है और जत्थ- जहां पर । बहवे - बहुत से । समण० - शाक्यादि श्रमण। जाव - यावत् । वणीमगा-वनीपक रंक भिखारी आदि । उवागया-आए हुए हैं । य-या । उवागमिस्संति-आवेंगे। अच्चाइन्ना वित्ती- अत्यन्ताकीर्ण वृत्ति अर्थात् भिक्षा जाते समय तथा स्वाध्याय, ध्यान और बाहर गमन करते समय वे लोग अधिक संख्या में बार-बार मिलते रहते हैं। पन्नस्स-जिस से प्रज्ञावान साधु । नो निक्खमण जाव चिंताएं न तो सुखपूर्वक निकल सकता है, और न प्रवेश ही कर सकता है तथा वह पांच प्रकार का स्वाध्याय भी नहीं कर सकता है। सेवं नच्चा - अतः वह साधु इस प्रकार जानकर । तहप्पगारं गामं वा तथाप्रकार के ग्राम में। नगरं वा-नगर में । जाव-यावत् । रायहाणिं वा राजधानी में। वासावासं वर्षाकाल अर्थात् चतुर्मास । नो उवल्लिइज्जा न करे । से भिक्खू वा०-वह साधु या साध्वी । से जं०- यदि वह यह जाने कि । गामं वा जाव राय० वाग्राम, नगर यावत् राजधानी को । खलु वाक्यालंकार में है । इमंसि गामंसि - इस ग्राम में । जाव - यावत् राजधा विहारभूमी - स्वाध्याय के लिए विशाल भूमि है और । महई वियारभूमी - मलमूत्रादि के त्यागने की भूमि भी विशाल है। जत्थ-जहां पर पीढ ४- पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक की प्राप्ति । सुलभे फा० - सुलभ हैं प्रासु एषणीय आहार का मिलना भी । सुलभे-सुलभ है। जत्थ-जहां पर । बहवे - बहुत से । समण० - शाक्यादि भिक्षुगण । नो उवागमिस्संति-भी आए हुए नहीं हैं और न आयेंगे। अप्पाइन्ना वित्ती-मार्ग में भीड़ भी नहीं है, अर्थात् भिक्षा आदि के समय जाते-आते वे मिलते भी नहीं हैं। जाव - यावत् स्वाध्याय आदि भी ठीक हो सकता है। इस प्रकार के ग्राम, नगर यावत् । रायहाणिं वा राजधानी में। तओ - तत् पश्चात् । संजयामेव संयत- संयमशील साधु । वासावासं वर्षाकाल । उवल्लिइज्जा - रहे।
मूलार्थ — वर्षावास करने वाले साधु या साध्वी को ग्राम, नगर, यावत् राजधानी की स्थिति को भली-भांति जानना चाहिए। जिस ग्राम, नगर यावत् राजधानी में एकान्त स्वाध्याय करने के लिए कोई विशाल भूमि न हो, नगर से बाहर मल-मूत्रादि के त्यागने की भी कोई विशाल भूमि न हो, और पीठ - फलक- शय्या संस्तारक की प्राप्ति भी सुलभ न हो, एवं प्रासुक और निर्दोष आहार का मिलना भी सुलभ न हो और बहुत से शाक्यादि भिक्षु यावत् भिखारी लोग आए हुए हों जिससे ग्रामादि में भीड़-भाड़ बहुत हो और साधु-साध्वी को सुखपूर्वक स्थान से निकलना और