SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 265
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३० श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध हेमंताण य पंचदसरायकप्पे परिवुसिए, अंतरा से मग्गे बहुपाणा जाव ससंताणगा नो जत्थ बहवे जाव उवागमिस्संति, सेवं नच्चा नो गामाणुगामं दूइजिज्जा।अह पुणेवं जाणिज्जा चत्तारि मासा कप्पे परिवुसिए, अंतरा से मग्गे अप्पंडा जाव असंताणगा बहवे जत्थ समणा० उवागमिस्संति, सेवं नच्चा तओ संजयामेव० दूइजिज्जा॥११३॥ छाया- अथ पुनरेवं जानीयात् चत्वारो मासा वर्षावासानां व्यतिक्रान्ताः हेमन्तानांच पंचदशरात्रकल्पे पर्युषिते अन्तरा ते मार्गाः बहु प्राणिनो यावत् ससन्तानकाः न यत्र बहवः यावद् उपागमिष्यन्ति स एवं ज्ञात्वा न ग्रामानुग्रामं यायात्। अथ पुनरेवं जानीयात् चत्वारो मासा• कल्पे पर्युषिते अन्तरा ते मार्गाः अल्पांडाः यावत् असंतानकाः बहवः यत्र श्रमण उपागमिष्यंति स एवं ज्ञात्वा ततः संयतमेव० यायात्। पदार्थ- अह-अथ। पुण-फिर। एवं-इस प्रकार । जाणिज्जा-जाने। वासावासाणं-वर्षाकाल के। चत्तारि मासा-चार मास। वीइक्कंता-अतिक्रान्त हो जाने पर अर्थात् कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा के पश्चात् मार्गशीर्ष प्रतिपदा को साधु को विहार कर देना चाहिए। यह उत्सर्ग मार्ग है। अब सूत्रकार अपवाद मार्ग के विषय में कहते हैं। य-और। हेमंताण-यदि वर्षा फिर हो जाए तो हेमन्तकाल के। पंचदसरायकप्पे-पंचदशरात्र कल्प में अर्थात् मर्यादा में। परिवुसिए-रहे। अंतरा से मग्गे-उस मार्ग के मध्य में। बहुपाणा-बहुत प्राणी। जाव-यावत्। ससंताणगा-जालों से युक्त मार्ग हो रहा हो और। जत्थ-जहां पर। बहवे-बहुत से श्रमण आदि। जाव-यावत्। नो उवागमिस्संति-मार्ग के ठीक न होने के कारण वे नहीं आएंगे। सेवं नच्चा-वह साधु इस प्रकार जानकर। गामाणुगाम-ग्रामानुग्राम। नो दूइजिजा-विहार न करे, एक ग्राम से दूसरे ग्राम न जाए।अह-अथ। पुण-फिर यदि। एवं-इस प्रकार।जाणिजा-जाने कि। चत्तारिमासा कप्पे परिवुसिए-वर्षाकाल के चार मास व्यतीत हो गए हैं, तदनन्तर हेमन्त काल के भी पंचदशरात्र १५ दिवस व्यतीत हो गए हैं। अंतरा से मग्गे-मार्ग के मध्य में। अप्पंडा-अण्डादि से रहित। जाव-यावत्। असंताणगा-जाला आदि से रहित मार्ग हो गया है। जत्थ-जहां पर। बहवे-बहुत से। समण-शाक्यादि श्रमण आ गए हैं तथा। उवागमिस्संति-और भी आ जाएंगे। सेवं नच्चावह साधु इस प्रकार जानकर। तओ-तदनन्तर। संजयामेव-यत्ना-पूर्वक ग्रामानुग्राम। दूइजिजा-विहार करे। मूलार्थ-वर्षाकाल के चार मास व्यतीत हो जाने पर साधु को अवश्य विहार कर देना चाहिए, यह मुनि का उत्सर्गमार्ग है। यदि कार्तिक मास में पुनः वर्षा हो जाए और उसके कारण मार्ग आवागमन के योग्य न रहें और वहां पर शाक्यादि भिक्षु नहीं आए हों तो मुनि को चतुर्मास के पश्चात् वहां १५ दिन और रहना कल्पता है। यदि १५ दिन के पश्चात् मार्ग ठीक हो गया हो, अन्यमत के भिक्षु भी आने लगे हों तो मुनि ग्रामानुग्राम विहार कर सकता है। इस तरह वर्षा के कारण मुनि कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा के पश्चात् मार्गशीर्षकृष्णा अमावस पर्यन्त ठहर सकता है। हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में वर्षावास समाप्त होने के बाद ठहरने के सम्बन्ध में उत्सर्ग एवं अपवाद मार्ग को सामने रखकर आदेश दिया गया है। इस में बताया गया है कि यदि वर्षाकाल के अन्तिम
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy