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________________ द्वितीय अध्ययन, उद्देशक ३ २२३ कहा गया है, उसका अभिप्राय इतना ही है कि उससे वायुकायिक जीवों की हिंसा न हो। प्रस्तुत प्रसंग में इतना अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि यह वर्णन सामान्य रूप से चलने वाले श्वासोच्छ्वास के लिए नहीं, अपितु विशेष प्रकार के श्वासोच्छ्वास के लिए है। आगम में लिखा है कि फूंक आदि मारने से वायु काय की हिंसा होती है। इसलिए साधु को इस तरह से यत्ना करने का आदेश दिया गया है। कुछ लोगों का कहना है कि भाषा के पुद्गल चार स्पर्श वाले होते हैं । अतः वे आठ स्पर्श वाले वायुकाय की हिंसा कैसे कर सकते हैं ? इसका समाधान यह है कि भाषा-वर्गणा के पुद्गल उत्पन्न होते समय चार स्पर्श वाले होते हैं, परन्तु भाषा के रूप में व्यक्त होते समय आठ स्पर्श वाले हो जाते हैं। इसी कारण शरीर से उत्पन्न होने वाली अचित्त वायुकाय को आठ स्पर्श युक्त माना गया है और वह ५ प्रकार की मानी गई है। अतः मुंह से निकलने वाली वायु से वायुकायिक जीवों की हिंसा होती है। ___ यहां एक प्रश्न पैदा हो सकता है कि जब साधु-साध्वी मुख पर मुखवस्त्रिका लगाते हैं, तब फिर श्वासोच्छ्वास से होने वाली वायुकायिक जीवों की हिंसा को रोकने के लिए मुंह पर हाथ रखने की क्या आवश्यकता है ? हम यह पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि यहां सामान्य रूप से चलने वाले श्वासोच्छ्वास के समय मुंह पर हाथ रखने का विधान नहीं किया है। यह विधान विशेष परिस्थिति के लिए है- जैसे उबासी, डकार एवं छींक आदि के समय जोर से निकलने वाली वायु का वेग मुखवस्त्रिका से नहीं रुक सकता है, ऐसे समय पर मुंह पर हाथ रखने का आदेश दिया गया है और मुख के साथ नाक का भी ग्रहण किया गया है। जैसे मुख से निकलने वाली वायु के वेग को रोकने के लिए मुख पर हाथ रखने को कहा है, उसी तरह अपान वावु के वेग को रोकने के लिए गुदा स्थान पर भी हाथ रखने का आदेश दिया है। इससे यह मानना पड़ेगा कि उस समय साधु चोलपट्टक (धोती के स्थान में पहनने का वस्त्र) भी नहीं रखते थे। परन्तु, ऐसी बात नहीं है। आगम में चोलपट्टक एवं मुखवस्त्रिका दोनों का विधान मिलता है। अतः इन प्रसंगों पर उक्त स्थानों पर हाथ रखने का उद्देश्य केवल वायुकायिक जीवों की रक्षा करना ही है। ___ अब सामान्य रूप से शय्या का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम्-से भिक्खू वा० समा वेगया सिज्जा भविजा विसमा वेगया सि. पवाया वे निवाया वे ससरक्खा वे अप्पससरक्खा वे सदंसमसगा वे अप्पदंसमसगा. सपरिसाडा वे अपरिसाडा वे सउवसग्गा वे निरुवसग्गा वे. तहप्पगाराहि सिज्जाहिं संविजमाणाहिं पग्गहियतरागं विहारं विहरिजा नो किंचिवि गिलाइज्जा, एवं खलु जं सव्वदे॒हिं सहिए सया जए त्ति बेमि॥११०॥ छाया- स भिक्षुर्वासमा वा एकदा शय्या भवेत् विषमा वा एकदा शय्या प्रवाता वा० निर्वाता वा० सरजस्का वा अल्परजस्का वा० सदंशमशका वा० अल्पदंशमशका वा० १ प्रश्न व्याकरण सूत्र, अ०१, दशवकालिक सूत्र, अ०४। २ पंचविहा अचित्ता वाउकाइया पंतं. अक्कंते, धंते, पीलिए, सरीराणुगए, संमुच्छिमे। - स्थानांग सूत्र, ५।
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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