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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध पोसयं वा पाणिणा परिपिहित्ता तओ संजयामेव ऊससिज्जा वा जाव वायनिसग्गं वा करेजा॥१०९॥
___ छाया- स भिक्षु . बहु० शयानः न अन्योऽन्यस्य हस्तेन हस्तं, पादेन पादं, कायेन कायं आशातयेत् स अनाशातयन् ततः संयतमेव बहु० शयीत। सभिक्षुः वा० उच्छ्वसन् वा निश्श्वसन् वा कासमानः वा क्षुतंकुर्वाणः वा जृम्भमाणो वा उगिरन् वा वातनिसर्ग कुर्वन् वा पूर्वमेव वा आस्यं वा पोष्यं वा पाणिना परिपिधाय ततः संयतमेव उच्छ्वसेत् वा यावत् वातनिसर्ग वा कुर्यात्।
पदार्थ-से भिक्खू वा-वह साधु या साध्वी। बहु-बहु प्रासुक शय्या संस्तारक पर। सयमाणेशयन करता हुआ।अन्नमन्नस्स-परस्पर-एक साधु दूसरे साधु के प्रति। हत्थेण हत्थं-अपने हाथ से दूसरे के हाथ को। पाएण-पैर से दूसरे के। पायं-पैर को। कायेण कायं-शरीर से दूसरे के शरीर को। नो आसाइजाआशातना न करे।से-वह साधु।अणासायमाणे-आशातना न करता हुआ। तओ-तदनन्तर। संजयामेव-यला पूर्वक। बहु०-प्रासुक शय्या संस्तारक पर। सइज्जा-शयन करे।
से भिक्खूवा-वह साधुअथवा साध्वी।उस्सासमाणे वा-उच्छ्वास लेता हुआ, अथवा। नीसासमाणे वा-निश्वास लेता हुआ इसी प्रकार। कासमाणे वा-खांसता हुआ।छीयमाणे वा-छींकता हुआ। जंभायमाणे वा-उवासी लेता हुआ। उड्डोए वा-डकार लेता हुआ अथवा। वायनिसग्गं वा करेमाणे-अपान वायु को छोड़ता हुआ। पुव्वामेव-पहले ही।आसयं वा पोसयंवा-मुख को, या गुदा को। पाणिणा-हाथ से।परिपिहित्ताढांप कर। तओ-तत् पश्चात्। संजयामेव-यत्ना पूर्वक। ऊससिज्जा वा-उच्छ्वास ले।जाव-यावत्। वायनिसग्गं वा-अपान वायु का निस्सरण। करेज्जा-करे अर्थात् अधो द्वार से वायु को छोड़े।
___मूलार्थ- साधु या साध्वी शयन करते हुए परस्पर-एक-दूसरे को अपने हाथ से दूसरे के हाथ की, पैर से दूसरे के पैर की और शरीर से दूसरे के शरीर की आशातना न करे। अर्थात् इनका एक-दूसरे से स्पर्श न हो। किन्तु आशातना न करते हुए ही शयन करे।
इसके अतिरिक्त साधु या साध्वी उच्छ्वास अथवा निश्वास लेता हुआ, खांसता हुआ, छींकता हुआ, उवासी लेता हुआ अथवा अपान वायु को छोड़ता हुआ पहले ही मुख़ या गुदा को हाथ से ढांप कर उच्छ्वास ले या अपान वायु का परित्याग करे।
हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु को शयन करते समय अपने हाथ-पैर से एक-दूसरे साधु की आशातना नहीं करनी चाहिए। अपने शरीर एवं हाथ-पैर का दूसरे के शरीर आदि से स्पर्श नहीं करना चाहिए। क्योंकि, ऐसी प्रवृत्ति से शारीरिक कुचेष्टा एवं अविनय प्रकट होता है, और मनोवृत्ति की चञ्चलता एवं मोहनीय कर्म की उदीरणा के कारण मोहनीय कर्म का उदय भी हो सकता है। अतः साधु को शयन करते समय किसी भी साधु के शरीर को हाथ एवं पैर आदि से स्पर्श नहीं करना चाहिए।
यदि साधु को श्वासोच्छ्वास,छींक आदि के आने पर मुंह एवं गुदा स्थान पर हाथ रखने को