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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक ३
२२१ प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'सिज्जा संथारगं' का अर्थ है शय्या या आसन करने का उपकरण । साधु को संस्तारक पर कैसे बैठना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्- से भिक्खू वा बहु० संथरित्ता अभिकंखिज्जा- बहुफासुए सिज्जासंथारए दुरूहित्तए॥से भिक्खू बहु० दुरूहमाणे पुव्वामेव ससीसोवरियं कायं पाए य पमज्जिय २ तओ संजयामेव बहु दुरूहित्ता तओ संजयामेव बहु० सइज्जा॥१०८॥
छाया- स भिक्षः वा बहु संस्तीर्य अभिकांक्षेत् बहुप्रासुके शय्यासंस्तारके दूरोहितुं, स भिक्षुः बहुः दूरोहन् पूर्वमेव सशीर्षोपरिकं कायं पादौ च प्रमृज्य २ ततः संयतमेव बहु. दूरुह्य ततः संयतमेवबहु० शयीत।
पदार्थ- से भिक्खू वा०-वह साधु या साध्वी। बहु०-बहु प्रासुक शय्या संस्तारक को। संथरित्ताबिछा करके।बहुफासुए-बहु प्रासुकासिज्जासंथारए-शय्या संस्तारक पर।दुरूहित्तए-बैठना।अभिकंखिज्जाचाहे तो-अब सूत्रकार बैठने के विषय में कहते हैं। से भिक्खू०- वह साधु या साध्वी। बहु०-बहु प्रासुक शय्या संस्तारक पर। दुरूहमाणे-बैठता हुआ। पुव्वामेव-बैठने से पहले ही। ससीसोवरियं कायं-शीर्ष-सिर के ऊपर का भाग और सर्व शरीर, तथा। पाए-पैर पर्यन्त। पमज्जिय २-सारे शरीर को प्रमार्जित करके। तओ-तदनन्तर। संजयामेव-साधु या साध्वी यत्ता पूर्वक । बहु०-बहु प्रासुक शय्या संस्तारक पर बैठे। दुरूहित्ता-बैठकर। तओतदनन्तर।संजयामेव-संयत-साधु या साध्वी। बहु०-बहु प्रासुक शय्या संस्तारक पर यतना पूर्वक। सइज्जा-शयन करे।
मूलार्थ-साधु या साध्वी प्रासुक शय्यासंस्तारक पर जब बैठकर शयन करना चाहे तब पहले सिर से लेकर पैरों तक शरीर को प्रमार्जित करके फिर यतना पूर्वक उस पर शयन करे।
. .हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु संस्तारक को यत्ना पूर्वक बिछाने के बाद उस पर शयन करने से पहले अपने शरीर का सिर से लेकर पैरों तक प्रमार्जन कर ले। क्योंकि, यदि शरीर पर कोई क्षुद्र जन्तु चढ़ गया हो या बैठ गया हो तो उसकी हिंसा न हो जाए और शरीर पर लगी हुई धूल से वस्त्र भी मैले न हों। अस्तु, संयम की साधना को शुद्ध बनाए रखने के लिए साधु को शरीर का प्रमार्जन करके ही शयन करना चाहिए।
. शयन किस तरह करना चाहिए, उसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं... मूलम्- से भिक्खू वा० सयमाणे नो अन्नमन्नस्स हत्थेण हत्थं, पाएण पायं, कायेण कायं आसाइजा, से अनासायमाणे तओ संजयामेव बहुः सइज्जा॥ से भिक्खूघा. उस्सासमाणे वा, नीसासमाणे वा, कासमाणे वा, छीयमाणे वा, जंभायमाणे वा, उड्डोए वा, वायनिसग्गं वा करेमाणे पुव्वामेव आसयं वा,
१ अर्द्धमागधी कोष पृष्ठ ७४२।