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________________ २२० श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध पडिलेहित्तए, नन्नत्थ आयरिएण वा उ० जाव गणावच्छेएण वा बालेण वा वुड्ढेण वा सेहेण वा गिलाणेण वा आएसेण वा अंतेण वा मज्झेण वा समेण वा विसमेण वा पवाएण वा निवाएण वा तओ संजयामेव पडिलेहिय २ पमजिय २ तओ संजयामेव बहुफासुयं सिज्जासंथारगं संथरिजा॥१०७॥ ___ छाया- स भिक्षुर्वा २ अभिकांक्षेत् शय्यासंस्तारकभूमिं प्रतिलेखयितुं नान्यत्र . आचार्येण वा उपाध्यायेन वा यावत् गणावच्छेदकेन वा बालेन वा वृद्धेन वा शैक्षेण वा ग्लानेन वा आदेशेन वा अन्तेन वा मध्येन वा समेन वा विषमेण वा प्रवातेन वा निर्वातेन वा ततः संयतमेव प्रतिलिख्य प्रतिलिख्य प्रमृज्य प्रमृज्य ततः संयतमेव बहुप्रासुकं शय्यासंस्तारकं संस्तरेत्। पदार्थ-से भिक्खू वा-वह साधु या साध्वी। सिज्जासंथारगभूमि-शय्या संस्तारक की भूमि का। पडिलेहित्तए-प्रतिलेखन करना। अभिकंखेज्जा-चाहे। नन्नत्थ-इतना विशेष है कि।आयरिएण वा-आचार्य। उ०-उपाध्याय। जाव-यावत्। गणावच्छेएण वा-गणावच्छेदक अथवा। बालेण वा-बालक साधु। वुड्ढेण वा-वृद्ध साधु । सेहेण वा-नव दीक्षित साधु। गिलाणेण वा-रोगी या।आएसेण वा-मेहमान, साधु ने शयन करने के लिए जो भूमि स्वीकार कर रखी है उसको छोड़कर उपाश्रय के। अंतेण वा-अन्दर या । मज्झेण वामध्य स्थान में। समेण वा-सम स्थान में। विसमेण वा-विषम स्थान में। पवारण वा-अत्यन्त वायु युक्त स्थान में। निवाएण वा-वायु रहित स्थान में। तओ-तदनन्तर। संजयामेव-यतना पूर्वक। पडिलेहिय २-भूमि की प्रतिलेखना करके।पमजिय २-और प्रमार्जना करके। तओ-तत् पश्चात्। संजयामेव-यत्ना पूर्वक। बहुफासुयंअत्यन्त प्रासुक। सिज्जासंथारगं-शय्या संस्तारक को। संथरिज्जा-बिछाए। मूलार्थ- साधु या साध्वी यदि शय्या संस्तारक भूमि की प्रतिलेखना करनी चाहे तो आचार्य, उपाध्याय यावत् गणावच्छेदक, बाल, वृद्ध, नव दीक्षित, रोगी और मेहमान रूप से आए साधु के द्वारा स्वीकार की हुई भूमि को छोड़कर उपाश्रय के अन्दर, मध्यस्थान में या सम और विषम स्थान में या वायु युक्त और वायु रहित स्थान में भूमि की प्रतिलेखना, और प्रमार्जना करके तदनन्तर अत्यन्त प्रासुक शय्या-संस्तारक को बिछाए। हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में शयन करने की विधि का उल्लेख करते हुए बताया गया है कि साधु को आसन बिछाते समय यह देखना चाहिए कि आचार्य, उपाध्याय आदि ने कहां आसन लगाया है। उन्होंने जिस स्थान पर आसन किया हो उस स्थान को छोड़कर शेष अवशिष्ट भाग में सम-विषम, हवादार या बिना हवा वाली जैसी भी भूमि हो उसका प्रतिलेखन करके वहां पर आसन कर ले। इसका तात्पर्य यह है कि वह आचार्य आदि की सुविधा का ध्यान अवश्य रखे। इसके लिए वह विषम एवं बिना हवादार भूमि पर आसन अवश्य कर ले, परन्तु उसके लिए किसी के स्थान का परिवर्तन न करे और न परिवर्तन करने के लिए संघर्ष करे। इससे साधु समाज के पारस्परिक प्रेम-स्नेह का भाव अभिव्यक्त होता
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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