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तृतीय अध्ययन ईयैषणा
प्रथम उद्देशक
द्वितीय श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन में संयम साधना को गतिशील बनाए रखने के लिए साधु को कैसा आहार-पानी ग्रहण करना चाहिए, इसका उल्लेख किया गया है और द्वितीय अध्ययन में यह बताया गया है कि गृहस्थ के घरों से ग्रहण किया गया निर्दोष आहार-पानी करने तथा ठहरने के लिए साधु को कैसे मकान की, किस तरह से गवेषणा करनी चाहिए। और प्रस्तुत अध्ययन में ईर्या समिति का वर्णन किया गया है। आहार आदि लाने के लिए तथा एक गांव से दूसरे गांव को जाते समय साधु को गमन करना पड़ता है। अतः साधु को कब, क्यों और कैसे गमन करना चाहिए, यह प्रस्तुत अध्ययन में बताया गया है। एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने की आवश्यकता पड़ने पर विवेक एवं यत्ता पूर्वक गमन करने की क्रिया को आगमिक भाषा में ईर्या समिति कहते हैं। यह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से ४ चार प्रकार की होती है। सचित्त, अचित्त एवं मिश्रित पदार्थों के गतिशील होने की क्रिया को द्रव्य ईर्या कहते हैं। जिस क्षेत्र में गमन किया जाए वह क्षेत्र ईर्या और जिस काल में गति की जाए वह काल ईर्या कहलाती है। भाव ईर्या संयम और चरण के भेद से दो प्रकार की है। १७ प्रकार के संयम में गति करना संयम ईर्या है और चरण ईर्या आलम्बन, काल, मार्ग और यत्ना के भेद से ४ प्रकार की है। शासन, संघ, गच्छ आदि की सेवा के प्रयोजन से गति करना आलम्बन है। गति करने योग्य काल में गमन करना काल ईर्या है, सुमार्ग पर गति करना मार्ग ईर्या है और संघ आदि के प्रयोजन से उपयुक्त काल में अच्छे मार्ग पर विवेक एवं यत्ना पूर्वक गति करना यत्ना ई है। यत्ना और विवेक के साथ चलने वाला साधक पाप कर्म का बन्ध नहीं करता है।
इस ईर्या-एषणा अध्ययन के तीन उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में बताया गया है कि साधु को कब विहार करना चाहिए और यदि कहीं मार्ग में नदी हो तो उसे कैसे पार करना चाहिए। द्वितीय उद्देशक में यह अभिव्यक्त किया गया है कि नौका से नदी पार करते समय नाविक छल-कपट से बर्ताव करे तो उस समय साधु को क्या करना चाहिए। और तृतीय उद्देशक में गति करते समय अहिंसा, सत्य आदि की रक्षा कैसे करनी चाहिए, इसका विस्तार से वर्णन किया गया है। प्रस्तुत उद्देशक में वर्षावास कल्प समाप्त होते ही विहार करने का आदेश देते हुए सूत्रकार कहते हैं
जयं चरे, जयं चिठे, जयमासे जयं सए। जयं भुञ्जन्तो-भासन्तो, पावकम्मं न बंधइ ॥- दशवकालिक सूत्र, ४,८।