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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक ३
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मूलम् - से भिक्खू वा अभिकंखिज्जा संथारगं पच्चप्पिणित्तए, से जं पुण संथारगं जाणिज्जा सअंडं जाव ससंताणयं तहप्प० संथारगं नो पच्चप्पिणिज्जा ॥ १०४॥
छाया- • स भिक्षुर्वा० अभिकांक्षेत् संस्तारकं प्रत्यर्पयितु स यत् पुनः संस्तारकं जानीयात् साण्डं यावत् ससन्तानकं तथाप्रकारं संस्तारकं न प्रत्यर्पयेत् ।
पदार्थ - से- वह । भिक्खू वा - साधु अथवा साध्वी । संथारगं - संस्तारक को । पच्चप्पिणित्तएगृहस्थ को पीछे देना। अभिकंक्खिज्जा - चाहे तब से वह भिक्षु । जं पुण-जो फिर । संथारगं-संस्तारक को । जाणिजा जाने कि । सअंडं जो संस्तारक अण्डों से युक्त । जाव - यावत् । ससंताणयं मकड़ी आदि के जालों से युक्त है। तहप्पारं - उस प्रकार के । संथारगं-संस्तारक को । नो पच्चप्पिणिज्जा - गृहस्थ को प्रत्यर्पण न करे अर्थात् गृहस्थ को वापिस न देवे ।
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मूलार्थ - साधु या साध्वी यदि प्रतिहारिक संस्तारक, गृहस्थ को वापिस देना चाहे तो वह संस्तारक अण्डों यावत् मकड़ी के जाले आदि से युक्त नहीं होना चाहिए। यदि वह इन से युक्त है तो वह उसे गृहस्थ को वापिस न करे ।
हिन्दी विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु को अपनी नेश्राय में स्थित प्रत्येक वस्तु की प्रतिलेखना करते रहना चाहिए। चाहे वह वस्तु गृहस्थ को वापिस लौटाने की भी क्यों न हो, फिर भी . जब तक साधु के पास है, तब तक प्रतिदिन नियत समय पर उसका प्रतिलेखन करना चाहिए। जिससे उस में जीव-जन्तु की उत्पत्ति न हो। और उसे वापिस लौटाते समय भी प्रतिलेखन करके लौटानी चाहिए। यदि कभी संस्तारक पर किसी पक्षी ने अंडे दे दिए हों या मकड़ी ने जाले बना लिए हों तो वह संस्तारक गृहस्थ को वापिस नहीं देना चाहिए। क्योंकि, गृहस्थ उसे शुद्ध बनाने का प्रयत्न करेगा और परिणामस्वरूप उन जीवों की घात हो जाएगी। इस तरह साधु प्रथम महाव्रत में दोष लगेगा, अतः उन जीवों की रक्षा के लिए ऐसे संस्तारक को वापिस नहीं लौटाना चाहिए।
इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम् - से भिक्खू० अभिकंखिज्जा सं。 से जं० अप्पंडं० तहप्पगारं संथारगं पडिलेहिय २ प॰ २ आयाविय २ विहुणिय २ तओ संजयामेव पच्चप्पिणिज्जा
॥१०५॥
छाया - सभिक्षुः अभिकांक्षेत् सं० स यत् अल्पांडं तथाप्रकारं संस्तारकं प्रतिलिख्य २ प्र० २ आताप्य २ विधूय २ ततः संयतमेव प्रत्यर्पयेत् ।
पदार्थ:- से भिक्खू० - वह साधु या साध्वी । संथारगं - संस्तारक को गृहस्थ के प्रति अर्पण करना । अभिकंखिज्जा - चाहे तो । से- वह साधु । जं- जो संस्तारक । अप्पंडं - अंडादि से रहित हो । तहप्पगारं तथाप्रकार के संस्तारक को । पडिलेहिय २- दृष्टि से प्रतिलेखन करके । पमज्जिय २ - रजोहरण आदि से प्रमार्जित करके ।