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________________ २१६ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध मूलार्थ- चतुर्थी प्रतिमा में यह अभिग्रह होता है कि -उपाश्रय में संस्तारक पहले से ही बिछा हुआ हो, या पत्थर की शिला या काष्ठ का तख्त बिछा हुआ हो तो वह उस पर शयन कर सकता है। यदि वहाँ कोई भी संस्तारक बिछा हुआ न मिले तो पूर्व कथित आसनों के द्वारा रात्रि व्यतीत करे, यह चौथी प्रतिमा है। हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में चतुर्थी प्रतिमा के सम्बन्ध में यह बताया गया है कि उक्त प्रतिमा को स्वीकार करने वाला मुनि जिस उपाश्रय में ठहरे उस उपाश्रय में प्रासुक एवं निर्दोष तृण आदि पहले से बिछे हुए हों या पत्थर की शिला या लकड़ी का तख्त बिछा हुआ हो तो वह उस पर शयन कर सकता है, अन्यथा तृतीया प्रतिमा में उल्लिखित आसनों के द्वारा रात्रि को आध्यात्मिक चिन्तन करते हुए व्यतीत करता है, परन्तु स्वयं संस्तारक बिछाकर शयन नहीं कर सकता है। इससे स्पष्ट होता है कि अन्तिम की दोनों प्रतिमाएं ध्यान एवं स्वाध्याय आदि की दृष्टि से रखी गई हैं। वृत्तिकार का भी यही मन्तव्य है। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त कट्ठसिलं' पद का तात्पर्य काष्ठ के तखत से ही है। संस्तारक सम्बन्धी प्रतिमाओं के विषय का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम्- इच्चेयाणं चउण्हं पडिमाणं अन्नयरं पडिमं पडिवजमाणे तं चेव जाव अन्नोऽन्नसमाहिए एवं च णं विहरंति॥१०३॥. . छाया- इत्येतासां चतसृणां प्रतिमानामन्यतरां प्रतिमा प्रतिपद्यमानः तच्चैव यावद् अन्योऽन्यसमाधिना एवं च विहरन्ति। पदार्थ- इच्चेयाणं-इन। चउण्हं-चार। पडिमाणं-प्रतिमाओं में से। अन्नयरं पडिम-किसी एक प्रतिमा को। पडिवज्जमाणे-ग्रहण करता हुआ अन्य प्रतिमाधारी साधु की हीलना न करे किन्तु। तं चेव-शेष वर्णन पिण्डैषणा की तरह जानना। जाव-यावत्। अन्नोऽन्नसमाहिए-परस्पर समाधि के द्वारा बुद्धिमान साधु । एवं-इस प्रकार से। विहरंति-विचरते हैं। च णं-पूर्ववत्। मूलार्थ- इन चार प्रतिमाओं में से किसी एक प्रतिमा को धारण करके विचरने वाला साधु, अन्य प्रतिमाधारी साधुओं की अवहेलना निन्दा न करे। किन्तु, सब साधु जिनेन्द्र देव की आज्ञा में विचरते हैं ऐसा समझ कर परस्पर समाधि-पूर्वक विचरण करे। हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि भगवान की आज्ञा के अनुरूप आचरण करने वाले सभी साधु समाधियुक्त एवं मोक्ष मार्ग के आराधक होने से वन्दनीय एवं पूजनीय हैं। अतः उक्त चारों प्रतिमाओं में से किसी एक प्रतिमा को धारण करने वाले मुनि को अन्य मुनियों को अपने से तुच्छ समझकर गर्व नहीं करना चाहिए। क्योंकि, त्याग चारित्रावरणीय कर्म के क्षयोपशम के अनुरूप ही ग्रहण किया जाता है। अतः प्रत्येक चारित्र निष्ठ मुनि का सम्मान करना चाहिए और अपने अहंकार का त्याग करके सबके साथ प्रेम-स्नेह रखना चाहिए। ___ गृहस्थ से ग्रहण किए गए संस्तारक को वापिस लौटाने की विधि का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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