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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक ३
२१५ मूलार्थ-द्वितीया प्रतिमा यह है कि साधु या साध्वी गृहपति आदि के परिवार में रखे हुए संस्तारक को देखकर उस की याचना करे- यथा-हे आयुष्मन् गृहस्थ ! अथवा बहन ! क्या तुम मुझे इन संस्तारकों में से अमुक संस्तारक दोगी? तब यदि निर्दोष और प्रासुक संस्तारक मिले तो उसे लेकर वह संयम साधना में संलग्न रहे।
तृतीया प्रतिमा यह है कि साधु जिस उपाश्रय में रहना चाहता है यदि उसी उपाश्रय में संस्तारक विद्यमान हो तो गृहस्वामी की आज्ञा लेकर संस्तारक को स्वीकार करके विचरे, यदि उपाश्रय में संस्सारक विद्यमान नहीं है तो वह उत्कुटुक आसन, पद्मासन आदि आसनों के द्वारा रात्रि व्यतीत करे। .
हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि गृहस्थ के घर में जो तृण आदि रखे हुए हैं, उन्हें देखकर साधु उसकी याचना करे और यदि वह प्रासुक एवं निर्दोष हों तो वह उन्हें ग्रहण करे । यह दूसरी प्रेक्ष्य प्रतिमा है। तीसरी प्रतिमा को स्वीकार करने वाला मुनि जिस उपाश्रय में ठहरना चाहता है उसी उपाश्रय में स्थित प्रासुक एवं निर्दोष तृण ही ग्रहण कर सकता है। यदि उपाश्रय में तृण आदि नहीं हैं तो वह उत्कुटुक या पद्मासन आदि आसनों से ध्यानस्थ होकर रात व्यतीत करे, परन्तु अन्य स्थान से लाकर तृण आदि न बिछाए। ये दोनों आसन कायोत्सर्ग से ही सम्बद्ध हैं। अतः इनका उल्लेख कायोत्सर्ग के लिए किया गया है। क्योंकि, कायोत्सर्ग का प्रमुख साधन आसन ही होता है। अतः प्रस्तुत उभय आसनों का उल्लेख करने का उद्देश्य यही है कि यदि तृतीया प्रतिमाधारी मुनि को उपाश्रय में संस्तारक प्राप्त न हो तो वह अपना समय ध्यान एवं चिन्तन-मनन में व्यतीत करे।
अब चतुर्थ प्रतिमा का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्- अहावरा चउत्था पडिमा-से भिक्खूवा अहासंथडमेव संथारगं जाइज्जा, तंजहा-पुढविसिलं वा कट्ठसिलं वा अहासंथडमेव, तस्स लाभे संते संवसिज्जा, तस्सालाभे उक्कुडुए वा २ विहरिजा, चउत्था पडिमा ४॥१०२॥
छाया- अथापरा चतुर्थी प्रतिमा-स भिक्षुर्वा यथासंस्तृतमेव संस्तारकं याचेत् तद्यथा पृथ्वीशिलां वा काष्ठशिलां वा यथासंस्तृतमेव तस्य लाभे सति संवसेत् तस्यालाभे उत्कुटुको वा २ विहरेत्, चतुर्थी प्रतिमा।
पदार्थ-अहावरा-अथ अन्य। चउत्था पडिमा-चतुर्थी प्रतिमा के सम्बन्ध में कहते हैं, जैसे कि।से भिक्खू वा-वह साधु या साध्वी। अहासंथडमेव-जिस उपाश्रय में रहना चाहता है उस उपाश्रय में बिछाए हुए। संथारंगं-संस्तारक की। जाइजा-याचना करे। तंजहा-जैसे कि। पुढविसिलं वा-पृथ्वी की शिला अथवा। कट्ठसिलं वा-काष्ठ की शिला-फलक आदि अथवा। अहासंथडमेव-जो तृणादि पहले से बिछाए हुए हैं। तस्स लाभे संते-उसके मिलने पर। संवसिजा-वह वहां निवास करे। तस्स अलाभे-और उसके न मिलने पर। उक्कुडुए वा-वह उत्कुटुक आसन वा पद्म आसनादि के द्वारा रात्रि व्यतीत करता हुआ। विहरिज्जा-विचरेसमय बिताए। चउत्था-पडिमा-यह चौथी प्रतिमा है।