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________________ २१८ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध आयाविय २ - सूर्य की आतापना देकर और । विहुणिय २ - यत्नापूर्वक झाड़कर । तओ - तदनन्तर | संजयामेवयनार्पूवक । पच्चप्पिणिज्जा - गृहस्थ को वापिस लौटाए । मूलार्थ - अण्डे एवं मकड़ी के जाले आदि से रहित जिस संस्तारक को साधु-साध्वी वापिस लौटाना चाहे, तो वह उसका प्रतिलेखन करके, रजोहरण से प्रमार्जित करके, सूर्य की धूप सुखा कर एवं यत्ना पूर्वक झाड़ कर फिर गृहस्थ को लौटावे । हिन्दी विवेचन - इस सूत्र में बताया गया है कि साधु को गृहस्थ के घर से लाए हुए संस्तारक को वापिस लौटाते समय उसकी शुद्धता का पूरा ख्याल रखना चाहिए। प्रतिदिन उसकी प्रतिलेखना करनी चाहिए जिससे उस पर जीव-जन्तु पैदा न हों, और वापिस लौटाते समय भी उसे अच्छी तरह से देख लेना चाहिए और रजोहरण से प्रमार्जन कर लेना चाहिए जिससे उस पर कूड़ा-कर्कट भी न जमा रहे। इतना ही नहीं, फिर उसे सूर्य की धूप में रखकर और भली-भांति झाड़-पोंछकर लौटाना चाहिए। इससे साधु जीवन की व्यवहारिकता पर विशेष प्रकाश डाला गया है। यदि वह उस संस्तारक को बिना साफ किए ही दे आएगा, तो गृहस्थ उसे साफ करके रखेगा और यह भी स्पष्ट है कि वह सफाई करते समय साधु जितना विवेक नहीं रख सकेगा, अतः साधु को ऐसी स्थिति ही नहीं आने देनी चाहिए कि उसके द्वारा उपभोग किए गए संस्तारक को साफ करने के लिए कोई अयत्नापूर्वक प्रयत्न करे। दूसरे में साफ की हुई वस्तु को देखकर गृहस्थ के मन में फिर से किसी साधु को देने की भावना सहज ही जागृत होगी और अस्वच्छ रूप में प्राप्त करके उसके मन में कुछ रोष भी आ सकता है। अतः गृहस्थ के यहां से लाए हुए संस्तारक आदि को यत्नापूर्वक साफ करके ही लौटाना चाहिए । साधु को बस्ती में किस तरह निवास करना चाहिए इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते मूलम् - से भिक्खू वा॰ समाणे वा वसमाणे वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे वा पुव्वामेव पन्नस्स उच्चारपासवणभूमिं पडिलेहिज्जा, केवली बूया - आयाणमेयं, अपडिलेहियाए उच्चारपासवणभूमीए से भिक्खू वा० राओ वा वियाले वा उच्चारपासवणं परिट्ठवेमाणे पयलिज्ज वा २, से तत्थ पयलमाणे वा २ हत्थं वा पायं वा जाव लूसेज्ज वा पाणाणि वा ४ ववरोविज्जा, अह भिक्खूणं पु० जं पुव्वामेव पन्नस्स उ० भूमिं पडिलेहिज्जा ॥ १०६ ॥ छाया - स भिक्षुर्वा० समानो वा बसन् वा ग्रामानुग्रामं गच्छन् वा पूर्वमेव प्राज्ञस्य उच्चारप्रस्स्रवणभूमिं प्रतिलेखयेत् । केवली ब्रूयात् - आदानमेतत् अप्रतिलिखितायां उच्चारप्रस्रवणभूमौ स भिक्षुः वा० रात्रौ वा विकाले वा उच्चारप्रस्रवणं-परिष्ठापयन् प्रस्खलेद् वा सः तत्र प्रस्खलन् वा० हस्तं वा पादं वा यावत् लूषयेत् प्राणान् वा ४ व्यपरोपयेत्, अथ भिक्षूणां पूर्वोपदिष्टं यत् पूर्वमेव प्राज्ञस्य उच्चारप्रस्रवणभूमिं प्रतिलेखयेत्।
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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