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________________ द्वितीय अध्ययन, उद्देशक ३ २११ रहित है। जाव-यावत्। संताणगं-जालों से रहित है, किन्तु । गुरुयं-गुरु-भारी है। तहप्पगारंο- तथाप्रकार के संस्तारक को मिलने पर ग्रहण न करे । से वह । भिक्खू वा० - साधु या साध्वी संस्तारक को जाने; जैसे कि । अप्पंडं अंडों से रहित है। लहुयं-लघु-हल्का भी है किन्तु । अप्पडिहारियं गृहस्थ उसे देने के बाद वापिस लेना नहीं चाहता है। तह०तथाप्रकार के संस्तारक मिलने पर भी । नो प०-ग्रहण न करे । - से वह । भिक्खू वा - साधु या साध्वी संस्तारक को जाने जैसे कि । अप्पंडं जो अंडों से रहित है। जाव-यावत् । अष्पसंताणगं-जाले आदि से रहित है। लहुयं -लघु भी है। पाडिहारियं-गृहस्थ देकर वापिस लेना भी स्वीकार करता है किन्तु । नो अहाबद्धं उसके बन्धन शिथिल हैं तो । तहप्पगारं - इस प्रकार का संस्तारक । लाभे संते-मिलने पर भी । नो पडिगाहिज्जा ग्रहण न करे । से वह । भिक्खू वा साधु या साध्वी से जं पुण- फिर जो । संथारगं-संस्तारक है उसे । जाणिज्जाजाने । अप्पंडं-जो अंडो से रहित है। जाव - यावत् । संताणगं-जाला आदि से रहित है। लहुअं - लघु है । पाडिहारियंगृहस्थ देकर फिर पीछे लेना स्वीकार करता है और । अहाबद्धं - उसके बन्धन भी दृढ़ हैं। तहप्पगारं - इस प्रकार का । संथारगं-संस्तारक । लाभे संते-मिलने पर । पंडिगाहिज्जा ग्रहण कर ले। मूलार्थ - जो साधु या साध्वी फलक आदि संस्तारक की गवेषणा करनी चाहे तो वह संस्तारक के सम्बन्ध में यह जाने कि जो संस्तारक अण्डों से यावत् मकड़ी आदि के जालों से युक्त है, ऐसे संस्तारक को मिलने पर भी ग्रहण न करे । इसी प्रकार जो संस्तारक अण्डों और जाले आदि से तो रहित है, किन्तु भारी है, ऐसे संस्तारक का भी मिलने पर ग्रहण न करे । जो संस्तारक अण्डों आदि से रहित है एवं लघु भी है किन्तु गृहस्थ उसे देकर फिर वापिस लेना नहीं चाहता है, तो ऐसा संस्तारक भी मिलने पर स्वीकार न करे । इसी तरह जो संस्तारक अण्डादि से रहित है, लघु है और गृहस्थ ने उसे वापिस लेना भी स्वीकार कर लिया है परन्तु उसके बन्धन शिथिल हैं तो ऐसा संस्तारक भी स्वीकार न करे । जो संस्तारक अण्डों आदि से रहित है, लघु है, गृहस्थ ने वापिस लेना भी स्वीकार कर लिया है और उसके बन्धन भी सुदृढ़ हैं, तो ऐसे संस्तारक को मिलने पर साधु ग्रहण कर ले। हिन्दी विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में संस्तारक - तख्त, पट्टा आदि के ग्रहण करने की विधि बताई गई है। इसमें बताया गया है कि जो तख्त अण्डे एवं जीव-जन्तुओं से युक्त हो, भारी हो, जिसे गृहस्थ ने वापिस लेने से इन्कार कर दिया हो तथा जिसके बन्धन शिथिल ( ढीले) हों, वह तख्त ग्रहण नहीं करना चाहिए। या चारों या इसमें से कोई भी एक कारण उपस्थित हो तो साधु-साध्वी को वैसा तख्त ग्रहण नहीं करना चाहिए। परन्तु जो तख्त इन चारों कारणों से रहित हो वही तख्त साधु ग्रहण कर सकता है। , इसका कारण यह है कि अण्डे आदि से युक्त तख्त ग्रहण करने से जीवों की हिंसा होगी, अतः
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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