SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 247
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१२ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध संयम की विराधना होगी। और भारी तख्त उठाकर लाने से शरीर को संक्लेश होगा, कभी अधिक बोझ के कारण रास्ते में पैर के इधर-उधर पड़ने से पैर आदि में चोट भी आ सकती है, इस तरह आत्म विराधना होगी। यदि गृहस्थ उस तख्त को वापिस नहीं लेता है तो फिर साधु के सामने यह प्रश्न उपस्थित होगा कि वह उसे कहां रखे। क्योंकि उसे उठाकर तो वह विहार कर नहीं सकता, और एक व्यक्ति के यहां से ली हुई वस्तु दूसरे के यहां रख भी नहीं सकता, और यदि वह उसे यों ही त्याग देता है तो उसे परित्याग करने का दोष लगता है, और शिथिल बन्धन वाला तख्त लेने से उसे पलिमंथ दोष लगेगा। क्योंकि यदि उसकी कोई कील निकल गई या वह कहीं से टूट गया तो, साधु क्या करेगा। अतः साधु को इन सब दोषों से मुक्त तख्त ही ग्रहण करना चाहिए। अस्तु जो तख्त अण्डे, जाले आदि से रहित हो, वजन में हल्का हो', साधु की आवश्यकता पूरी होने पर गृहस्थ उसे वापिस लेने के लिए कह चुका हो और जिसके बंधन मजबूत हों, वही तख्त साधु-साध्वी को ग्रहण करना चाहिए। संस्तारक ग्रहण करने के लिए किए जाने वाले अभिग्रहों का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते मूलम्- इच्चेयाइं आयतणाइं उवाइक्कम-अह भिक्खू जाणिजा इमाई चउहि पडिमाहिं संथारगं एसित्तए, तत्थ खलुइमा पढमा पडिमा-से भिक्खूवा २ उद्दिसिय २संथारगं जाइजा; तंजहा-इक्कडं वा, कढिणं वा, जंतुयं बा, परगं वा, मोरगं वा, तणगं वा, सोरगं वा, कुसं वा, कुच्चगं वा, पिप्पलगं वा, पलालगं वा, से पुव्वामेव आलोइजा-आउसो त्ति वा भ० दाहिसि मे इत्तो अन्नयरं संथारगं ? तह संथारगं सयं वा णं जाइजा, परो वा देजा, फासुयं एसणिज्ज जाव पडि०, पढमा पडिमा॥१००॥ ___ छाया- इत्येतानि आयतनानि उपातिक्रम्य-अथ भिक्षुः जानीयात् आभिः चतसृभिः प्रतिमाभिः संस्तारकमेषितुं तत्र खलु इयं प्रथमा प्रतिमा-स भिक्षुः वा २ उद्दिश्य २ संस्तारकं याचेत् , तद्यथा- इक्कडं वा, कठिनं वा, जन्तुकं वा, परकं वा, मयूरकं वा, तृणकं वा, सोरकं वा, कुशं वा, कुर्चकं वा, पिप्पलकं वा, पलालकं वा, स पूर्वमेव आलोचयेत्-आयुष्मन् ! इति वा भगिनि !(इति वा) दास्यसि मे इतोऽन्यतरं संस्तारकं ? तथाप्रकारं संस्तारकं स्वयंवा याचयेत् परो वा दद्यात् प्रासुकमेषणीयं यावत् प्रतिगृह्णीयात्, प्रथमा प्रतिमा। __ पदार्थ- इच्चेयाइं-ये सब पूर्वोक्त। आयतणाइं-वस्ती और संस्तारक के दोषों का स्थान है। उवाइक्कम-इसे अतिक्रम करके अर्थात् तद्गत दोषों को दूर करके।अह भिक्खू-अथ साधु। जाणिजा-यह १ व्यवहार भाष्य में बताया गया है कि जिस तख्त को साधु सहज ही अर्थात् बिना किसी खेद के साथ एक ही हाथ से (बिना दूसरे हाथ में बदलते हुए) ला सके, ऐसा तख्त ग्रहण करना चाहिए।
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy