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___ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध जब कि पशु-पक्षी एवं प्रकृत्ति सम्बन्धी चित्रों को देखकर विकार भाव जागृत नहीं होते हैं। फिर भी इसका निषेध किया गया है। इसका मुख्य उद्देश्य यह है कि उपाश्रय में चित्रित चित्र चाहे स्त्री-पुरुष के हों या अन्य किन्हीं प्राणियों एवं प्राकृतिक दृश्यों के हों, साधु उन्हें देखने में व्यस्त हो जाएगा और उसका स्वाध्याय एवं ध्यान का समय चक्षुइन्द्रिय के पोषण में लग जाएगा। इस तरह उसकी ज्ञान और ध्यान की साधना में विघ्न पड़ेगा और यदि उन चित्रों में आसक्ति उत्पन्न हो गई तो मन में विकृत भाव भी उत्पन्न हो सकते हैं। अस्तु ज्ञान-दर्शन की साधना के प्रवाह को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए साधु को ऐसे स्थानों में ठहरने का निषेध किया गया है। छेद सूत्रों में भी ऐसे स्थानों में ठहरने का निषेध किया गया है।
मकान में ठहरने के बाद तख्त आदि की आवश्यकता होती है, अतः साधु को कैसा तख्त ग्रहण करना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-से भिक्खू वा अभिकंखिज्जा संथारगं एसित्तए, से जं. संथारगं जाणिज्जा सअंडं जाव ससंताणयं, तहप्पगारं संथारं लाभे संते नो पडि०१। से भिक्खू वा से जं. अप्पंडं जाव संताणगरुयं तहप्पगारं नो प०२।से भिक्खू वा. अप्पंडं लहुयं अपाडिहारियं तह नो प० ३। से भिक्खू वा० अप्पंडं जाव अप्पसंताणगंलहुयंपाडिहारियं नो अहाबद्धं, तहप्पगारं लाभेसंते नो पडिगाहिज्जा ४।से भिक्खू वा २ से जं पुण संथारगं जाणिज्जा अप्पंडं जाव संताणगं लहुअं पाडिहारियं अहाबद्धं, तहप्पगारं संथारगं लाभे संते पडिगाहिज्जा ५॥९९।
___छाया- स भिक्षुर्वा अभिकांक्षेत् संस्तारकं एषितुं स यत् संस्तारकं जानीयात् साण्डं यावत् संसतानकं तथाप्रकारं संस्तारकं लाभे सति न प्रतिः १। स भिक्षुर्वा स यत् अल्पांडं यावत् सन्तानगुरुकं तथाप्रकारं नो प्र०२। स भिक्षुर्वा अल्पांडं लघुकं अप्रतिहारकं तथाप्रकारं न प्र० ३।स भिक्षुर्वा अल्पांडं यावत् अल्पसन्तानकं लघुकं प्रतिहारकं नो यथाबद्धं तथाप्रकारं लाभेसति नो प्रतिगृह्णीयात् ४। स भिक्षुर्वा २ स यत् पुनः संस्तारकं जानीयात् अल्पांडं यावत् सन्तानकं लघुकं प्रतिहारकं यथाबद्धं तथाप्रकारं संस्तारकं लाभे सति प्रतिगृह्णीयात् ५।
पदार्थ-से-वह।भिक्खू वा०-साधु या साध्वी। संथारगं-फलक आदि संस्तारक की। एसित्तएगवेषणा करनी। अभिकंखेजा-चाहे तो।से जं-वह भिक्षु-साधु।संथारगं-संस्तारक तख्त आदि जो।सअंडंअंडों से युक्त है। जाव-यावत्। ससंताणयं-मकड़ी के जालों आदि से युक्त है। जाणिज्जा-जाने। तहप्पगारंतथाप्रकार के। संथारं-संस्तारक को। लाभे संते-मिलने पर भी। नो पडि-ग्रहण न करे।
से-वह। भिक्खू वा-साधु या साध्वी। से जं-वह फिर संसतारक को जाने जो। अप्पंडं-अंडों से
१. बृहत्कल्प सूत्र, १,२१।