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भिन्नता है। परन्तु, इससे यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि दूसरा श्रुतस्कन्ध गणधर कृत नहीं, स्थविर कृत है। क्योंकि, केवल भाषा एवं शैली भिन्नता का प्रतीक नहीं मानी जा सकती। हम देखते हैं कि भावों के अनुसार भाषा भी बदलती रहती है। बी० ए० और एम० ए० के स्तर की पुस्तकें एवं पी-एच. डी के स्तर का महानिबन्ध लिखने वाला प्रोफेसर जब प्रथम एवं द्वितीय श्रेणी के छात्रों के लिए पुस्तकें लिखता है, तो उन दोनों पुस्तकों की भाषा एवं शैली में रात-दिन का अंतर होता है। जो एम० ए० एवं पी-एच. डी० के स्तर के महानिबन्ध के भावों में गंभीरता एवं प्रौढ़ता है, वह प्रथम एवं द्वितीय श्रेणी के स्तर की पुस्तकों में नहीं आ सकती है। अतः भावों के अनुरूप भाषा एवं शैली में वह गम्भीरता नहीं रह सकती। बाल साहित्य लिखते समय प्रोफेसर को बच्चों की भाषा एवं शैली का ख्याल रखना होगा। परन्तु, इस बाल साहित्य की सीधी-सादी शैली एवं हल्की भाषा के कारण हम यह नहीं कह सकते कि महानिबन्ध एवं एम० ए० के साहित्य का लेखक एवं बाल साहित्य का लेखक एक नहीं, दो भिन्न व्यक्ति हैं। इससे स्पष्ट हो गया कि एक ही व्यक्ति क्लिष्ट एवं सरलं भाषा में लिख सकता है। भाषा भावों के अनुरूप बदलती रहती है।
_आचाराङ्ग का प्रथम श्रुतस्कन्ध तात्त्विक है। इसमें पांच आचार- १-ज्ञानाचार, २-दर्शनाचार, ३चारित्राचार, ४-तपाचार और ५-वीर्याचार का तात्त्विक विवेचन किया गया है। अतः उस में सूत्र शैली का प्रयोग किया गया है। थोड़े से शब्दों से बहुत कुछ कह दिया गया है। एक प्रकार से गागर में सागर भर दिया है। अतः भावों की गम्भीरता के अनुरूप ही भाषा एवं शैली में क्लिष्टता एवं गाम्भीर्य का आना स्वाभाविक था। परन्तु; द्वितीय श्रुतस्कन्ध में प्रायः साध्वाचार का ही वर्णन है और वह सर्व साधारण के लिए है। इसके भावों में दार्शनिकता.एवं गम्भीरता कम है। उसके भावों को प्रत्येक व्यक्ति सरलता से समझ सकता है। अतः भावों के अनुरूप उसकी भाषा एवं शैली भी सरल एवं सीधी-सादी है। अतः दोनों श्रुतस्कन्धों की भाषा एवं शैली का अन्तर दो विभिन्न कर्ताओं के कारण नहीं, अपितु भावों की विभिन्नता के कारण है। अतः उभय श्रुतस्कन्ध गणधर कृत ही हैं।
उभय श्रुतस्कन्ध एक-दूसरे के पूरक हैं
आचाराङ्ग सूत्र का अनुशीलन-परिशीलन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि दोनों श्रुतस्कन्ध एक-दूसरे के परिपूरक हैं। हम यह देख चुके हैं कि प्रथम श्रुतस्कन्ध में ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार इन ५ आधारों का वर्णन किया है और द्वितीय श्रुतस्कन्ध में प्रायः साध्वाचार का विस्तृत विवेचन मिलता है। यदि पंचाचार साधना की लहलहाती हुई खेती है, तो साध्वाचार उस की बाड़ है, जो उसकी हर तरह से सुरक्षा करती है। साध्वाचार के अभाव में पंचाचार की उत्कृष्ट साधना नहीं हो सकती। अतः उभय श्रुतस्कन्ध अपने-अपने स्थान पर महत्त्वपूर्ण हैं। इन्हें एक-दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता। देखिए, आचाराङ्ग सूत्र में द्वितीय श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन के प्रथम उद्देशक को प्रारम्भ करते समय वृत्तिकार लिखते हैं कि "प्रथम श्रुतस्कन्ध पूरा हुआ अब द्वितीय श्रुतस्कन्ध प्रारम्भ करते हैं, उसका परस्पर यह सम्बन्ध है।" इससे यह स्पष्ट होता है कि द्वितीय श्रुतस्कन्ध आचाराङ्ग का उपयोगी
१. ठक्तो नवब्रह्मचर्याध्ययनात्मक आचार श्रुतस्कंध: साम्प्रतं समाप्तं द्वितीयोऽग्रश्रुतस्कन्धः समारभ्यते,अस्य चायमभिसम्बन्धः। -आचाराङ्ग वृत्ति, द्वितीय श्रुतस्कंध।
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