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________________ भी मिलते हैं। ___ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में बताया गया है कि भगवान ऋषभदेव ने श्रमण साधना के लिए पच्चीस भावनाओं के साथ पांच महाव्रतों का उपदेश दिया। इसमें भावना-गमेण' शब्द विशेष महत्त्वपूर्ण है। आचाराङ्ग सूत्र के २४ वें अध्ययन का नाम 'भावना अध्ययन' है, इसमें ५ महाव्रत की २५ भावनाओं का विस्तृत विवेचन मिलता है। प्रस्तुत पाठ इस ओर संकेत कर रहा है। समवायाङ्ग सूत्र में २५ अध्ययनों का नाम निर्देश किया है। इससे स्पष्टतः सिद्ध होता है कि द्वितीय श्रुतस्कन्ध पहले श्रुतस्कन्ध से सम्बद्ध है। अतः वह भी प्रथम श्रुतस्कन्ध की तरह गणधर कृत है। स्थानाङ्ग सूत्र में भी हमें ऐसा ही पाठ मिलता है, जिसमें भावना अध्ययन का उदाहरण दिया गया है। इसके अतिरिक्त प्रश्नव्याकरण सूत्र में यह प्रश्न उठाया गया है कि साधु को कैसा और किस तरह का आहार ग्रहण करना चाहिए ? इसके उत्तर में कहा गया है 'पिण्डपात' अध्ययन के ग्यारह उद्देशकों में आहार-पानी ग्रहण करने की जो विधि बताई है, उस तरह से ग्रहण करना चाहिए। पाठकों को यह नहीं भूलना चाहिए कि 'पिण्डपात' आचाराङ्ग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध का प्रथम अध्ययन है। अतः प्रस्तुत पाठ भी द्वितीय श्रुतस्कन्ध की महत्ता को प्रकट कर रहा है। ये सब पाठ इस बात को सिद्ध कर रहे हैं कि द्वितीय श्रुतस्कन्ध की रचना उसी समय हुई थी, जब प्रथम श्रुतस्कन्ध की हुई है। अत: उभय श्रुतस्कन्ध गणधर कृत हैं। भाषा एवं शैली का अन्तर - यह हम ऊपर देख चुके हैं कि कुछ विचारक द्वितीय श्रुतस्कन्ध को गणधर कृत नहीं मानते हैं। चूर्णिकार भी इसे स्थविर कृत मानते हैं और डा. हर्मन जेकोबी एवं अन्य प्राच्य एवं पाश्चात्य विद्वान भी चूर्णिकार के विचारों से सहमत हैं। उनका कथन है कि प्रथम श्रुतस्कन्ध के ९ अध्ययन ही गणधर कृत हैं। शेष द्वितीय श्रुतस्कंध के १६ अध्ययन पीछे से जोड़े गए हैं। अतः इनका रचयिता गणधर नहीं, कोई स्थविर ही होना चाहिए। _ अपने पक्ष के समर्थन में उनका कथन है कि प्रथम एवं द्वितीय श्रुतस्कन्ध की भाषा, भाव और शैली में एकरूपता नहीं है। प्रथम श्रुतस्कन्ध के भाव गहन-गंभीर हैं और भावों के अनुरूप उसकी भाषा एवं शैली भी क्लिष्ट एवं गम्भीर है। परन्तु, द्वितीय श्रुतस्कन्ध के भावों में यह दार्शनिकता एवं गम्भीरता नहीं है, जो प्रथम श्रुतस्कन्ध के भावों में है। इसी कारण उसकी भाषा एवं शैली में गाम्भीर्य परिलक्षित नहीं होता है। यदि दोनों श्रुतस्कन्ध एक ही व्यक्ति के निर्मित होते तो दोनों के भाव, भाषा एवं शैली में इतना अन्तर नहीं आता। इससे प्रतीत होता है कि द्वितीय श्रुतस्कन्ध चूलिका के रूप में पीछे से जोड़ा गया है। हम विचारकों की इस बात से पूर्णतः सहमत हैं कि दोनों श्रुतस्कन्धों की भाषा एवं शैली में १. तएणं से भगवं समणाणं णिग्गंथाणं वा णिग्गंथीणं पंच महव्वयाई सभावणागाई छज्जीवणिकाए धम्म देसमाणे विहरइ तंजहा-पुढवी काइए भावनागमेण पंच महव्वयाई सभावणागाई भणियव्वाइं। __-जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति वक्षः, ऋषभ अधिकार। २. आयारस्सणंभगवओ सचूलिआयरस्स पणवीस अज्झयणा पंतंजहा- सत्थ परिणा, लोग विजओ, सीओसणीय, सम्मत्तं आवंति, धूय, विमोह, उवहाण, सूर्य , महपरिणा, पिंडेसणा, सिज्जिरिआ, भासज्झयणा, य वत्थ, पाएसा, उग्गह पडिमा, सतिक्कसत्तया, 'भावणा, विमुक्ति। -समवायाङ्ग सूत्र, २५।। ३. अममे, अकिंचणे, अच्छिन्नगंथे, निरूवलेवे, कसयाईव, मुक्कतोए जहा भावणाए।-स्थानाङ्ग सूत्र, स्थान ६।" ४. अह केरिसयं पुणाइ कप्पति, ज तं एकारस्स पिंडवाय सुद्ध। -प्रश्नव्याकरण सूत्र, संवरद्वार ५ । पवाडा
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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