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प्रस्तुत आगम.के प्रथम श्रुतस्कन्ध के अध्ययनों का नाम ब्रह्मचर्य है। आगे कहा गया है कि "आचाराङ्ग भगवान के चूलिका के साथ पच्चीस अध्ययन कहे गए हैं, जैसे शस्त्र-परिज्ञा इत्यादि।" प्रस्तुत पाठों से उपरोक्त बात परिपुष्ट होती है और यह भी स्पष्ट हो जाता है कि प्रथम श्रुतस्कन्ध की तरह द्वितीय श्रुतस्कन्ध भी प्रामाणिक एवं गणधर कृत है। इन पाठों से संपूर्ण आचाराङ्ग सूत्र की विशिष्टता, प्रामाणिकता एवं गणधर कृतत्व झलक उठता है।
आचाराङ्ग सूत्र के कर्ता
जैन विचारकों की यह मान्यता है कि द्वादशांगी- अंग शास्त्र के प्रणेता तीर्थंकर होते हैं। तीर्थंकर भगवान अपने शासनकाल में द्वादशांगी का अर्थ रूप से उपदेश देते हैं। उस अर्थ रूप वाणी को गणधर सूत्र में ग्रथित करते हैं। अतः अर्थ रूप से द्वादशांगी के उपदेष्टा या प्रणेता तीर्थंकर होते हैं और गणधर उसे सूत्र रूप में ग्रथित करते हैं। गणधर कृत सूत्रों का मूलाधार तीर्थंकरों की अर्थ रूप वाणी होने से हम उसे तीर्थंकर या सर्वज्ञ कृत ही कहते हैं। इस दृष्टि से द्वादशांगी सर्वज्ञ प्रणीत कहलाती है। आचाराङ्ग सूत्र का द्वादशांगी में प्रथम स्थान है, अतः आचाराङ्ग सूत्र सर्वज्ञ प्रणीत माना जाता है।
द्वितीय श्रुतस्कंध के रचयिता- गणधर हैं या स्थविर ?
इसमें कोई दो मत नहीं हैं कि आचाराङ्ग का प्रथम श्रुतस्कन्ध गणधर कृत है। परन्तु, द्वितीय श्रुतस्कन्ध के सम्बन्ध में कुछ विचार भेद है। कई विचारक एवं तत्त्ववेत्ता द्वितीय श्रुतस्कन्ध को गणधर कृत नहीं, प्रत्युत स्थविर कृत मानते हैं। चूर्णिकार का अभिमत है कि आचाराङ्ग का द्वितीय श्रुतस्कन्ध स्थविरों द्वारा रचा हुआ है । जर्मन विद्वान भी हरमन जेकोबी भी चूर्णिकार के मत से सहमत हैं। कई जैन विचारक एवं विद्वान भी इसे स्थविर कृत मानते हैं। उनका कथन है कि विषय की समानता होने के कारण इसे स्थविरों ने बाद में चूलिका के रूप में आचाराङ्ग के साथ सम्बद्ध किया है। परन्तु, मेरी मान्यता यह है कि प्रस्तुत आगम का द्वितीय श्रुतस्कन्ध स्थविर कृत नहीं, गणधर कृत है। आगम में भी इसका स्पष्ट उल्लेख मिलता है।
हम समवायाङ्ग सूत्र का पाठ देख चुके हैं, उसमें स्पष्टतया बताया गया है कि प्रथम अंग (आचाराङ्ग) के दो श्रुतस्कन्ध, २५ अध्ययन, ८५ उद्देशक और १८ सहस्र पद हैं। समवायाङ्ग सूत्र अंग सूत्रों में समाविष्ट है। अतः वह गणधर कृत है। उसमें आचाराङ्ग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध को प्रथम श्रुतस्कन्ध से सम्बद्ध करके वर्णन किया गया है। यदि द्वितीय श्रुतस्कन्ध गणधर कृत नहीं होता तो गणधर कृत समवायाङ्ग सूत्र में इसका उल्लेख नहीं मिलता। प्रस्तुत पाठ से यह स्पष्ट हो जाता है कि द्वितीय श्रुतस्कन्ध भी प्रथम श्रुतस्कन्ध की तरह गणधर कृत है।
. केवल समवायाङ्ग सूत्र में ही नहीं, अन्य आगम साहित्य में भी इस की प्राचीनता, प्रामाणिकता एवं महत्त्वपूर्णता का उल्लेख मिलता है। इसके साथ अन्य आगमों में इसके गणधर कृत होने के प्रमाण ... १. आयारस्स णं भगवओ सचूलिआयरस्स पणवीसं अज्झयणा पन्नत्ता तंजहा- सत्थपरिणा.... ।
-समवायाङ्ग सूत्र, २५। २. थेरेहिं अणुग्गहवा सीसहि होउ पागडत्थं च आयाराओ अत्थो आयाराड्रेस पविभत्तो।
"स्थविरैः श्रुतवृद्धश्चतुर्दश पूर्वविद्भिनियूढानीति, किमर्थं ? शिष्य हितं भवत्विति कृत्वाऽनुग्रहार्थं तथाऽप्रकटोऽर्थः। प्रकटो यथा स्यादित्येवमर्थञ्च, कुतो नियूढानि आचारात् सकाशात समस्तोऽप्यर्थं आचाराग्रेषु विस्तरेण प्रविभक्त इति।"
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