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________________ प्रथम खण्ड से द्वितीय श्रुतस्कंध गणधर कृत है ? आगम साहित्य में आचाराङ्ग सूत्र का महत्वपूर्ण स्थान है। क्योंकि, आचार जीवन का, साधना का मूलाधार है। इसी के सहारे मानव मुक्ति पथ को तय करता है । यही कारण है कि अतीत में जितने भी तीर्थंकर हुए हैं, उन सब ने सर्व प्रथम आचार का उपदेश दिया और अनागत में जितने भी तीर्थंकर होंगे वे सब सर्व प्रथम आचार का उपदेश देंगे तथा वर्तमान में महाविदेह क्षेत्र में जो तीर्थंकर विद्यमान हैं, वे भी अपने शासनकाल में सर्व प्रथम आचार का उपदेश देते हैं। इससे इसकी महत्ता स्वतः सिद्ध होती है और इसकी प्राचीनता भी स्पष्टतः परिलक्षित होती है। प्रस्तुत सूत्र साध्वाचार का पथ प्रदर्शक है । वस्तुतः पंचाचार की नींव पर आचाराङ्ग सूत्र का भव्य भवन स्थित है। श्रमण साधना से सम्बद्ध कोई भी बात ऐसी नहीं है, जिसका वर्णन आचाराङ्ग सूत्र में नहीं आया हो। इसी विशेषता के कारण इसे आचाराङ्ग भगवान कहा गया है। यह आगम दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त है। प्रथम श्रुतस्कन्ध का विषय गूढ़ एवं गम्भीर है। वर्णन शैली प्राचीन होते हुए भी सुन्दर एवं अनुपम है। भाषा प्राञ्जल एवं प्रवाहमय होते हुए भी विषय के अनुरूप क्लिष्ट भी है। परन्तु, क्लिष्टता के साथ लालित्य भी है और छोटे-छोटे सूत्रों में इतना विशाल अर्थ भर दिया है कि मानों गागर में सागर ठाठे मार रहा हो। भाषा एवं भावों की दृष्टि से प्रथम श्रुतस्कन्ध जितना गम्भीर एवं कठिन है, द्वितीय श्रुतस्कन्ध उतना ही सुगम, सरल एवं सुबोध है। सीधी-सादी भाषा भावों को स्वतः स्पष्ट करती जाती है। उसे समझने के लिए साधक को अधिक गहराई में नहीं उतरना पड़ता है। थोड़े से प्रयत्न से ही उसे आचार का नवनीत प्राप्त हो जाता है। वस्तुतः सुगम पथ पर प्रत्येक पथिक सुगमता से चल सकता है। दुर्गम पथ को पार करने वाले विरले ही महापुरुष होते हैं। आचाराङ्ग सूत्र की भी यही स्थिति है। पहला श्रुतस्कन्ध भाव, भाषा एवं विषय की दृष्टि से गहन, गम्भीर एवं कठिन है, तो द्वितीय श्रुतस्कन्ध सरल एवं सुगम है। जिसे हृदयंगम करने के लिए मस्तिष्क को अधिक श्रम नहीं करना पड़ता है। समवायाङ्ग सूत्र में बताया है कि प्रथम श्रुतस्कन्ध के नव अध्ययन हैं और ये नव अध्ययन ५१ उद्देशकों में विभक्त हैं। द्वितीय श्रुतस्कन्ध में १६ अध्ययन हैं और उनके ३४ उद्देशक हैं। पूरे आचाराङ्ग सूत्र के २५ अध्ययन हैं और ये सब ८५ उद्देशकों से संयुक्त हैं। इसमें अठारह सहस्र पद हैं।१ । ऐसा ही पाठ श्री नन्दी सूत्र में भी मिलता है। इससे स्पष्ट होता है कि आचाराङ्ग भगवान का भव्य भवन ८५ स्तम्भों पर खड़ा है। आगम में स्पष्ट शब्दों में कहा है- "नव ब्रह्मचर्यों के ५१ उद्देशक हैं"२ १. से णं अंगठ्ठयाए पढ़मे अंगे दो सूयखंदा- पणवीस्सं अज्झयणा, पंचासीइ उद्देसण काला, पच्चासी समुद्देसण काला, अट्ठारस्स पद सहस्साई पदग्गेणं। आयारस्स भगवतो स चूलिआगस्स अट्ठारस्स पय सहस्साई पन्नाई। -समवायाङ्ग, द्वादशाङ्गी अधिकार। २. नवण्हं बंभचेराणं एकावन्नं उद्देसण काला पं०। - समवायाङ्ग सूत्र, ५१ (xii)
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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