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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक २
१९५ किसी भद्र परिणामी गृहस्थ ने उपाश्रय दान का महत्व सुना है और उस पर।रोयमाणेहिं-रुचि करने से।अप्पणोसयट्ठाए-अपने निज के प्रयोजन के लिए। तत्थ २-जहां-तहां। अगारिहिं-गृहस्थों ने स्थान बनाए हुए हैं। जाव-यावत्। उज्जालियपुव्वे भवइ-जिसमें अग्नि प्रचलित की गई हो। जे भयंतारो-जो पूज्य मुनिराज।तहप्प०तथाप्रकार के।आएसणाणिवा-लोहकारशाला आदिभवनों-स्थानों में।उवागच्छन्ति-आते हैं और।इयराइयरेहिछोटे-बड़े। पाहुडेहिं-दिए गए उक्त स्थानों में उतरते हैं। ते-वे। एगपक्खं-एक पक्ष अर्थात् एक मात्र पूर्ण साधुता सम्बन्धि। कम्म-कर्म का।सेवंति-सेवन करते हैं। अयमाउसो-हे आयुष्मन् शिष्य ! यह। अप्पसावजकिरिया यावि भवइ-अल्प सावद्य क्रिया होती है। एवं खलु तस्स०-इस प्रकार भिक्षु का यह समग्रभाव अर्थात् साधुता का भाव है।
मूलार्थ-इस संसार में स्थित कुछ श्रद्धालु गृहस्थ जो यह जानते हैं कि साधु को उपाश्रय का दान देने से स्वर्ग आदि फल की प्राप्ति होती है, वे अपने उपयोग के लिए बनाए गए मकान को तथा शीतकाल में जहां अग्नि प्रज्वलित की गई हो ऐसे छोटे-बड़े मकान को सहर्ष साधु को ठहरने के लिए देते हैं। ऐसे मकान में जो साधु ठहरते हैं वे एकपक्ष-पूर्ण साधुता का पालन करते हैं और इसे अल्पसावध क्रिया कहते हैं।
हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि जो मकान गृहस्थ ने अपने लिए बनाया हो और उसमें अपने लिए अग्नि आदि प्रज्वलित करने की सावध क्रियाएं की हों। साधु के उद्देश्य से उसमें कुछ नहीं किया हो तो ऐसे मकान में ठहरने वाला साधु पूर्ण रूप से साधुत्व का परिपालन करता है।
प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'अप्प' शब्द अभाव का परिबोधक है। वृत्तिकार ने भी इसका अभाव अर्थ किया है । और मूलपाठ जो "एक पक्खं ते कम्मं सेवंयि"-अर्थात् जो द्रव्य और भाव से एक रूप अर्थात् साधुत्व का परिपालक है।" यह पद दिया है, इससे 'अप्प' शब्द अभाव सूचक ही सिद्ध होता है।
___कुछ हस्तलिखित प्रतियों में उक्त नव क्रियाओं की एक गाथा भी मिलती है। उक्त नव प्रकार के उपाश्रयों में अभिक्रान्त और अल्प सावध क्रिया वाले दो प्रकार के मकान साधु के लिए ग्राह्य हैं, शेष सातों प्रकार के स्थान अकल्पनीय हैं।
॥ द्वितीय उद्देशक समाप्त।
- आचारांग वृत्ति।
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अल्प शब्दोऽभाववाचीति। कालाइक्कंत, व ठाण, अभिकंता, चेव अणभिकंता य। वज्जा य महावज्जा, सावज्जा महऽप्पकिरिया य॥