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________________ द्वितीय अध्ययन शय्यैषणा .. तृतीय उद्देशक द्वितीय उद्देशक के अन्तिम सूत्र में शुद्ध वस्ती (मकान) का वर्णन किया गया है । अब प्रस्तुत उद्देशक में अशुद्ध वस्ती का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम्- से य नो सुलभे फासुए उंछे अहेसणिजे नो य खलु सुद्धे इमेहिं पाहुडेहि, तंजहा-छायणओ लेवणओ संथारदुवारपिहणओ पिंडवाएसणाओ, से य भिक्खू चरियारए ठाणरए निसीहियारए सिज्जासंथारपिंडवाएसणारए, संति भिक्खुणो एवमक्खाइणो उज्जुया नियागपडिवन्ना अमायं कुव्वमाणा वियाहिया, संतेगइया पाहुडिया उक्खित्तपुव्वा भवइ, एवं निक्खित्तपुव्वा भवइ, परिभाइयनिक्खित्तपुव्वा भवइ, परिभाइयपुव्वा भवइ, परिभुत्तपुव्वा भवइ, परिट्ठवियपुव्वा भवइ, एवं वियागरेमाणे समियाए वियागरेइ ?हंता भवइ ॥८७॥ छाया- स च नो सुलभः प्रासुकः उञ्च्छः अथ एषणीयः, न च खलु शुद्धः एभिः प्राभृतैः, तद्यथा-छादनत: लेपनतः संस्तार-द्वार पिधानतः पिंडपातैषणातः ते च भिक्षवः चर्यारताः स्थानरताः निषीधिकारताः शय्यासंस्तार-पिंडपातैषणारताः संति भिक्षवः एवमाख्यायिनः ऋजवः नियागप्रतिपन्नाः अमायां कुर्वाणाः व्याख्याताः सन्ति एकका प्राभृतिका उत्क्षिप्तपूर्वा भवति, एवं निक्षिप्त पूर्वा भवति, परिभाजितपूर्वा भवति, परिभुक्तपूर्वा भवति, परिस्थापितपूर्वा भवति एवं व्याकुर्वन् कथयन् सम्यग् व्याकरोति ? हन्त भवति। पदार्थ-से-वह भिक्षु किसी ग्रामादि में भिक्षा के लिए गया तब किसी गृहस्थ ने उसे वहां ठहरने की विनती की कि भगवन् ! आप यहां पर ही कृपा करें। इस नगर में अन्न-पानी का संयोग सुख पूर्वक मिल सकता है, इसके उत्तर में मुनि ने कहा, भद्र ! प्रासुक आहार-पानी का मिलना तो कठिन नहीं है, किन्तु जहां पर बैठकर शुद्ध निर्दोष आहार किया जाता है उस उपाश्रय का मिलना। नो सुलभे-सुलभ नहीं है। अब सूत्रकार उपाश्रय के विषय में वर्णन करते हैं। फासुए-प्रासुक-आधाकर्मादि दोषों से रहित। उंछे-छादनादि उत्तरगुणीय दोषों से रहित। अहेसणिजे-मूल एवं उत्तर गुणीय दोषों से शून्य होने के कारण एषणीय। य-और। खलु-निश्चय ही। नो सुद्धे-उत्तर गुणों से जो शुद्ध नहीं है। इमेहि-इन।पाहुडेहिं-पाप कर्मों के उपादान से बनाए गए हैं। तंजहा-जैसे कि। छायणओ-साधु के लिए आच्छादन करने से। लेवणओ-गोबर आदि का लेपन करने से।
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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