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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध छोटे-बड़े। पाहुडेहि-भेंट स्वरूप दिए गए उपाश्रयों में जो ठहरते हैं। ते-वे। दुपक्खं-द्विपक्ष अर्थात् द्रव्य से साधु और भाव से गृहस्थ रूप। कम्म-कर्म का। सेवंति-सेवन करते हैं। इयमाउसो-हे आयुष्मन् शिष्य ! यह। महासावजकिरिया यावि भवइ-महासावद्य क्रिया होती है।
मूलार्थ इस संसार में पूर्वादि चारों दिशाओं में बहुत से श्रद्धालु व्यक्ति हैं, जिन्होंने साधु का आचार तो सम्यक्तया नहीं सुना, केवल उपाश्रय दान के स्वर्गादि फल को सुना है। वे साधु के लिए ६ काय का समारम्भ करके लोहकार शाला आदि स्थान-मकान बनाते हैं। यदि साधु उनमें ज्ञात होने पर भी ठहरता है तो वह द्रव्य से साधु और भाव से गृहस्थ है, अर्थात् साधु का वेश होने से साधु और षट्काय के आरम्भ की अनुमति आदि से युक्त होने के कारण भाव से गृहस्थ जैसा है। अतः हे शिष्य ! इस क्रिया को महासावध क्रिया कहते हैं।
हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि जो उपाश्रय-मकान साधु के उद्देश्य से बनाया गया है और साधु के उद्देश्य से ही लोप-पोत कर साफ-सुथरा बनाया है और छप्पर आदि से आच्छादित किया है तथा दरवाजे आदि बनवाए हैं और गर्मी में ठण्डे पानी का छिड़काव करके मकान को शीतल एवं शरद् ऋतु में आग जलाकर गर्म किया गया है तो साधु को ऐसे मकान में नहीं ठहरना चाहिए। यदि साधु जानते हुए भी ऐसे मकान में ठहरता है तो उसे महासावद्य क्रिया लगती है। और ऐसे मकान में ठहरने वाला केवल भेष से साधु है, भावों से नहीं। क्योंकि उसमें साधु के लिए ६ काय के जीवों का आरंभ समारम्भ हुआ है। इसलिए सूत्रकार ने स्पष्ट शब्दों में कहा है- 'दुपक्खं ते कम्म सेवंति।' आचार्य शीलांक ने प्रस्तुत पद की व्याख्या करते हुए लिखा है- 'ते द्विपक्षं कर्मा सेवन्ते तद्यथाप्रव्रज्यामाधाकर्मिकवसत्यासेवद् गृहस्थत्वं च रागद्वेषं इर्यापथं साम्परायिकं च।'
इससे स्पष्ट हो जाता है कि ऐसे सदोष मकान में ठहरने वाले साधु साधुत्व के महापथ से गिर जाते हैं, उनकी साधना शुद्ध नहीं रह पाती। अतः साधु को सदा निर्दोष एवं निरवद्य मकान में ठहरना चाहिए।
अब अल्प सावद्य क्रिया का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं- '
मूलम्- इह खलु पाईणं वा० रोयमाणेहिं अप्पणो सयट्ठाए तत्थ २ अगारिहिं जाव उज्जालियपुव्वे भवइ, जे भयंतारो तहप्प० आएसणाणि वा० उवागच्छंति इयराइयरेहिं पाहुडेहिं एगपक्खं ते कम्मं सेवंति, अयमाउसो ! अप्पसावज्जा किरिया यावि भवइ ९। एवं खलु तस्स०॥८६॥
- छाया- इह खलु प्राचीनं वा ४ रोचमानैः आत्मनः स्वार्थाय तत्र तत्र अगारिभिः यावत् उज्ज्वालितपूर्वं भवति, ये भयत्रातारः तथाप्रकाराणि आदेशनानि वा उपागच्छन्ति इतरेतरेषु प्राभृतेषु एकपक्षं ते कर्म सेवंते। इयमायुष्मन् ! अल्पसावधक्रिया चापि भवति। एवं खलु तस्य भिक्षोः सामग्र्यम् ।
पदार्थ- इह-इस संसार में। खलु-वाक्यालंकार सूचक अव्यय है। पाईणं वा-पूर्वादि दिशाओं में