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________________ द्वितीय अध्ययन, उद्देशक २ १९३ हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में भी पूर्व सूत्र की बात को दुहराया गया है। इसमें यह बताया गया है कि यदि श्रमण, भिक्षु आदि को लक्ष्य में रखकर किसी मकान में सावद्य क्रिया की गई हो तो साधु को उसमें नहीं ठहरना चाहिए। यदि कोई उसमें ठहरता है तो उसे सावद्य क्रिया लगती है। अब महासावद्य क्रिया का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम् - इह खलु पाईणं वा ४ जाव तं रोयमाणेहिं एगं समणजायं समुद्दिस्स तत्थ २ अगारीहिं अगाराइ चेइयाइं भवंति, तं० - आएसणाणि जाव गिहाणि वा महया पुढविकायसमारंभेणं जाव महया तसकायसमारंभेणं महया विरूवरूवेहिं पावकम्मकिच्चे हिं, तंजहा - छायणओ लेवणओ संथारदुवारपिहणओ सीओदए वा परट्ठवियपुव्वे भवइ, अगणिकाए वा उज्जालियपुव्वे भवइ, जे भयंतारो तह आएसणाणि वा० उवागच्छंति इयराइयरेहिं पाहुडेहिं वट्टंति दुपक्खं ते कम्मं सेवंति अयमाउसो ! महासावज्जकिरिया यावि भवइ ॥ ८५ ॥ छाया - इह खलु प्राचीनं यावत् तद् रोचमानैः एकं श्रमणजातं समुद्दिश्य तत्र तत्र अगारिभि अगाराणि कृतानि भवन्ति । तद्यथा - आदेशनानि यावद् गृहाणि वा महता पृथ्वीकायसमारम्भेन यावत् महता त्रसकायसमारम्भेन महद्भि र्विरूपरूपैः पापकर्मकृत्यैः, तद्यथा - छादनतो, लेपनतः, संस्तारकद्वारपिधापनतः शीतोदकं वा परिष्ठापितपूर्वं भवति । अग्निकायो वा उज्ज्वालितपूर्वो भवति, ये भयत्रातारः तथाप्रकाराणि आदेशनानि वा, उपागच्छन्ति, इतरेतरेषु प्राभृतेषु द्विपक्षं ते कर्म सेवन्ते, इयमायुष्मन् ! महासावद्यक्रिया चापि भवति । • पदार्थ - खलु - वाक्यालंकार में है । इह - इस संसार में । पाईणं वा ४- पूर्वादि दिशाओं में। जावयावत्। तं-उपाश्रय प्रदान के स्वर्गादि फल की। रोयमाणेहिं रुचि करने से। एगं समणजायं-किसी एक श्रमण को। समुद्दिस्स उद्देश्य करके । तत्थ २ - जहां-तहां । अगारीहिं गृहस्थों ने। अगाराई - भवन । चेड्याइं बनाए हुए हैं। तं जैसे कि । आएसणाणि लोहकार शाला । जाव- यावत् । गिहाणि वा तलघर आदि । महया पुढविकायसमारंभेणं - महान् पृथ्वीकाय के समारम्भ से । जाव- यावत् । महया तसकायसमारंभेणं - महान् त्रसकाय के समारम्भ से। महया विरूवरूवेहिं नाना प्रकार के महान्। पावकम्मकिच्चेहिं पापकर्मकृत्यों से । तं जहा - जैसे कि साधु के लिए। छायणओ-मकान पर छत आदि डाली हुई है। लेवणओ-लीपी-पोती हुई है। संथारदुवारपिहणओ-संस्तारक के स्थान को सम-बराबर बनाया है, दरवाजे बनाए हैं और। सीओदए वा परट्ठवियपुव्वे भवइ-ठंडक करने के लिए शीतल जल का छिड़काव किया है, तथा । अगणिकाए वा उज्जालियपुवे भवइ - शीत निवारणार्थ अग्नि प्रज्वलित की है। ये भयंतारो - जो मुनिराज । तह० तथा प्रकार के । आएसणाणि लोहकार शाला आदि में । उवागच्छंति - आते हैं तथा । इयराइयरेहिं - साधु के लिए बने हुए
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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