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________________ १९० श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध अनेक व्यक्ति हैं जो साधु के आचार-विचार को जानते हैं, फलतः परस्पर बातचीत करते हुए कहते हैं कि-ये पूजनीय जैन साधु मैथुन धर्म से सर्वथा उपरत हैं एवं सावध क्रियाओं से विरक्त हैं। अतः इन्हें आधाकर्मिक- आधाकर्म दोष से दूषित उपाश्रय में बसना नहीं कल्पता है। अस्तु, हमने अपने लिए जो लोहकार शाला आदि मकान बनाए हैं, वे सब इन श्रमणों को दे देते हैं। और हम अपने लिए दूसरे नए लोहकार शाला आदि मकान बना लेंगे। गृहस्थों के उक्त निर्घोष को सुनकर तथा समझ कर भी जो मुनि -साधु तथा प्रकार के छोटे-बड़े लोहकार शाला आदि, गृहस्थों द्वारा दिए गए मकानों में उतरते हैं तो हे आयुष्मन् शिष्य ! उन्हें वय॑क्रिया लगती है, अर्थात् जो साधु ऐसे स्थानों में ठहरता है उसे वर्ण्यक्रिया का दोष लगता है। हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि जो श्रद्धालु गृहस्थ साध्वाचार से परिचित हैं, वे अपने-अपने परिजनों को बताते हैं कि ये जैन साधु आधाकर्म आदि दोष युक्त उपाश्रय में नहीं ठहरते हैं। अतः हम अपने लिए बनाए हुए मकान इन्हें ठहरने को दे देते हैं। अपने रहने के लिए दूसरा मकान । बना लेंगे। इस तरह के विचारों को सुनकर साधु को उस मकान में नहीं ठहरना चाहिए। यदि यह जानने के पश्चात् भी वह उस मकान में ठहरता है तो उसे वर्ण्यक्रिया लगती है। स्थानांग सूत्र में 'वज' शब्द की व्याख्या करते हुए आचार्य अभयदेव सूरि ने लिखा है'वजंति-वयंति इतिवयं, अवयं व अकार लोपात् वज्रवत् वज्र वा गुरुत्वात् हिंसा नृतादि पापं कर्म' अर्थात् 'वज्र की तरह भारी हिंसा, झूठ आदि पापों को वर्ण्य कहते हैं। और तत्सम्बन्धी क्रिया को वर्ण्य क्रिया कहते हैं।' इस अपेक्षा से ५ आश्रव वज्र या वर्ण्य हैं । अतः साधु के निमित्त इन दोषों से आहार या उपाश्रय यदि बनाया गया हो और साधु उसे जानते हुए भी उसका उपभोग कर रहा हो तो उसे वर्ण्य दोष लगता है। अतः साधु को ऐसे मकान में ठहरना नहीं कल्पता। अब महावर्ण्य क्रिया का स्पष्टीकरण करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम्- इह खलु पाईणं वा ४ संतेगइया सङ्का भवंति, तेसिं च णं आयारगोयरे जाव तं रोयमाणेहिं बहवे समणमाहण जाव वणीमगे पगणिय २ समुद्दिस्स तत्थ तत्थ आगारिहिं अगाराइं चेइयाइं भवंति तं-आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा, जे भयंतारो तहप्पगाराइं आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा उवागच्छंति इयराइयरेहिं पाहुडेहिं अयमाउसो ! महावज्जकिरियायावि भवइ॥८३॥ छाया- इह खलु प्राचीनं वा ४ सन्ति एककाः श्राद्धा भवन्ति, तेषां च आचारगोचरः यावत् तद् रोचमानैः बहून श्रमणब्राह्मणान् यावत् वनीपकान् प्रगणय्य प्रगणय्य समुद्दिश्य अगारिभिः अगाराणि कृतानि भवन्ति, तद्यथा-आदेशनानि वा यावद् गृहाणि वा ये भयत्रातारः . तथाप्रकाराणि आदेशनानि वा यावद् गृहाणि वा उपागच्छन्ति इतरेतरेषु प्राभृतेषु),अयमायुष्मन्, महावज्रक्रिया चापि भवति।
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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