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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक २
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पदार्थ - इह - इस संसार में। खलु - वाक्यालंकार सूचक अव्यय है । पाईणं वा ४- पूर्वादि दिशाओं में। एगइया - क्रई एक । सड्ढा श्रद्धा वाले गृहस्थ । भवंति रहते हैं । तेसिं च णं - उन्होंने। आयारगोयरेआचार-विचार। जाव-यावत् । तं - उसके स्वर्गादि फल की। रोयमाणेहिं रुचि करने से । बहवे - बहुत से । समणमाहण - श्रमण और ब्राह्मण। जाव- यावत् । वणीमगे- भिखारी आदि को । पगणिय पगणिय-गिन-गिन कर और। समुद्दिस्स उनको उद्देश्य करके । तत्थ तत्थ-जहां तहां । अगारिहिं गृहस्थों ने। अगाराई-कई मकान । चेयाइं भवंति बनाए हैं। तंजहा- जैसे कि । आएसणाणि वा - लोहकारशाला आदि। जाव - यावत् । गिहाणि वा-गृह- तलघर आदि । जे भयंतारो - जो पूज्य मुनिराज । तहप्पगाराई - तथाप्रकार के । आएसणाणि वा - लोहकार शाला आदि। जाव-यावत् । गिहाणि गृहों में । इयराइयरेहिं-छोटे-बड़े । पाहुडेहिं प्राभृत स्वरूप दिए गए उपाश्रयों में। उवागच्छंति-आते हैं और रहते हैं । अयमाउसो हे आयुष्मन् शिष्य ! यह । महावज्जकिरिया यावि भवइमहावर्ण्य क्रिया होती है।
मूलार्थ — इस संसार में पूर्वादि दिशाओं में बहुत से ऐसे श्रद्धालु गृहस्थ हैं जो साधु (जैन मुनि) के आचार-विचार को सम्यक्तया नहीं जानते हैं, परन्तु साधु को बसती दान देने के स्वर्गादि फल को सम्यक्या जानते हैं और उस पर श्रद्धा-विश्वास तथा अभिरुचि रखते हैं। उन गृहस्थों ने बहुत से श्रमण, ब्राह्मण यावत् भिखारियों को गिन-गिन कर तथा उनका लक्ष्य करके लोहकार शाला आदि विशाल भवन बनाए हैं। जो पूज्य मुनिराज तथाप्रकार के छोटे-बड़े और गृहस्थों द्वारा सहर्ष भेंट किए गए उक्त लोहकार शाला आदि गृहों में आकर ठहरते हैं तो हे आयुष्मन् शिष्य ! यह उनके लिए महावर्ज्य क्रिया होती है, अर्थात् उनको यह क्रिया लगती है।
हिन्दी विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि कुछ श्रद्धालु लोग साध्वाचार से अनभिज्ञ हैं, परन्तु वे साधु को मकान का दान देने में स्वर्ग आदि की प्राप्ति के फल को जानते हैं और इस कारण उन्होंने श्रमण, भिक्षु आदि को लक्ष्य में रखकर उनके ठहरने के लिए मकान बनाए हैं। साधु को ऐसे मकान में नहीं ठहरना चाहिए, यदि वह ऐसे मकानों में ठहरता है तो उसे महावर्ज्य दोष लगता है। इस पर यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि गृहस्थ ने शाक्य आदि श्रमणों के लिए मकान बनाया है और वे उस मकान में ठहर भी चुके हैं, तो फिर साधु उस मकान में ठहरता है तो उसे महावर्ज्य क्रिया कैसे लगती है ? इसका समाधान यह है कि श्रमण शब्द का प्रयोग निर्ग्रन्थ के लिए भी होता है। आगम में बताया गया है१ - निर्ग्रन्थ (जैन साधु), २- बौद्ध भिक्षु, ३ - तापस, ४- गैरिक ( संन्यासी) और ५ - आजीवक (गौशालक मत के साधु) आदि ५ सम्प्रदायों के साधुओं के लिए श्रमण शब्द का प्रयोग होता रहा है । अतः श्रमण शब्द से जैन साधु का ग्रहण किया गया है, क्योंकि बौद्ध भिक्षुओं आदि के लिए भिक्षु शब्द का भी प्रयोग
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से किं तं पाखंड नामे ? समणे य पंडुरंगे भिक्खू, कावालिए अ तावसिए परिवायगे से तं पासंडनामे ।
अनुयोगद्वार सूत्र ।
वृत्ति - इह येन यत् पाषण्डमाश्रितं तस्य तन्नाम स्थाप्यमानं पाषण्ड स्थापना नामाभिधीयते तत्र निग्गंथ, सक्क, तावस, गेरुक्य, आजीव पंचहा समणा इति वचनात् निर्ग्रन्थादि पंच पाषण्डान्याश्रित्य श्रमण उच्यते एवं नैयायिकादि पाषण्डमाश्रिता पांडुरंगादयो भावनीया, नवरं भिक्षुर्बुद्धेदर्शनाश्रितः ।
आचार्य श्री मल्लधारी हेमचन्द्र ।
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