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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध संतेगइया-कई एक। सड्ढा भवति-श्रद्धालु गृहस्थ होते हैं। तंजहा-यथा। गाहावई वा-गाथापति। जावयावत्। कम्मकरीओ वा-दासियां।णं-वाक्यालंकार में है। तेसिंच-उन्होंने। आयारगोयरे-साधु का आचारविचार। नो सुनिसंते-भली-भांति श्रवण नहीं किया। भवइ-है, किन्तु उपाश्रय आदि का दान देने से स्वर्गादि का श्रेष्ठ फल मिलता है यह सुन रखा है। तं-उसकी। सद्दहमाणेहि-श्रद्धा करने से। पत्तियमाणेहि-प्रतीति करने से। रोयमाणेहि-रूचि करने से। बहवे-बहुत से। समण-शाक्यादि श्रमण। माहण-ब्राह्मण। अतिहि-अतिथि। किवण-कृपण।वणीमग-दरिद्र-भिखारी इनको।समुद्दिस्स-उद्देश्य करके।आगारीहिं-गृहस्थों ने। तत्थ तत्थजहां-तहां।आगाराइं-अपने और श्रमण आदि के लिए घर एवं। चेइयाइं भवंति-उपाश्रय बनाए हुए हैं। तंजहाजैसे कि।आएसणाणि वा-लुहार आदि की शाला।आयतणाणि वा-धर्मशाला।देवकुलाणि वा-देवमंदिरदेहरा। सहाओ वा-सभाभवन। पवाणि वा-प्रपा-पानी पिलाने का स्थान-प्याऊ आदि।पणियगिहाणि वादुकान। पणियसालाओ वा-पुण्यशाला-मालगोदाम आदि। जाणगिहाणि वा-रथ शाला-जहां रथ आदि ठहराए जाते हैं। जाणसालाओवा-यानशाला-जहां रथ आदि यान बनाए जाते हैं। सुहाकम्मंताणि वा-चूने का कारखाना। दब्भकम्मंताणि वा-जहां कुशा की वस्तुएं बनाई जाती हैं। बद्धक०-जहां चमड़े की बाध बनाई जाती है। बक्कयक-जहां छाल आदि तैयार की जाती है।इंगालकम्म०-जहां कोयले बनाए जाते हैं। कट्ठकजहां काठ आदि घड़ा जाता है। सुसाणक०-जहाँ श्मशान में कूपादि बनाए जाते हैं। सुण्णागार-शून्यागारशून्यगृह। गिरिकंदर-पहाड़ के ऊपर बने हुए घर और गुफा आदि। संति-शान्ति कर्म के लिए बने हुए मन्दिर। सेलोवट्ठाण कम्मंताणि वा-पर्वत-भवन, पाषाणमण्डप।भवणगिहाणि वा-तलघर इत्यादि। जे भयंतारोजो पूज्य साधु। तहप्पगाराइं-तथाप्रकार के। आएसणाणि वा जाव गिहाणि-लुहारशाला आदि को। तेहिं उवयमाणेहि-अन्य मत के भिक्षुओं या गृहस्थों ने भोग लिया है और उन स्थानों में। उवयंति-साधु ठहरते हैं तो। आउसो-हे आयुष्मन् शिष्य ! अयं-यह। अभिक्कंतकिरिया-अभिक्रान्तक्रिया। भवइ-होती है अर्थात् इस प्रकार के स्थानों में उतरने से साधु को कोई दोष नहीं लगता है।
मूलार्थ हे आयुष्मन् शिष्य ! इस संसार में पूर्वादि दिशाओं में कई व्यक्ति श्रद्धा और भक्ति से युक्त होते हैं। जैसे कि-गृहपति यावत् उनके दास-दासियां। उन्होंने साधु का आचार और व्यवहार तो सम्यक्तया नहीं सुना है परन्तु यह सुन रखा है कि उन्हें उपाश्रय आदि का दान देने से स्वर्गादि का फल मिलता है और इस पर श्रद्धा, विश्वास एवं अभिरुचि रखने के कारण उन्होंने बहुत से शाक्यादि श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, कृपण और भिखारी आदि का उद्देश्य करके तथा अपने कुटुम्ब का उद्देश्य रख कर अपने-अपने गांवों या शहरों में उन गृहस्थों ने बड़े-बड़े मकान बनाए हैं। जैसे कि लोहकार की शालाएं, धर्मशालाएं, देवकुल, सभाएं, प्रपाएं, प्याऊ, दुकानें, मालगोदाम, यानगृह, यानशालाएं, चूने के कारखाने, कुशा के कारखाने, बर्ध के कारखाने, बल्कल के कारखाने, कोयले के कारखाने, काष्ठ के कारखाने, श्मशान भूमि में बने हुए मकान, शून्यगृह, पहाड़ के ऊपर बने हुए मकान, पहाड़ की गुफा शान्तिगृह, पाषाण मण्डप भूमिघरतहखाने इत्यादि और इन स्थानों में श्रमण-ब्राह्मणादि अनेक बार ठहर चुके हैं। यदि ऐसे स्थानों में जैन भिक्षु भी ठहरते हैं तो उसे अभिक्रान्त क्रिया कहते हैं अर्थात् साधु को ऐसे मकान में ठहरना कल्पता है।