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________________ द्वितीय अध्ययन, उद्देशक २ १८५ तथा अन्य धर्म के विचारकों एवं भिक्षुओं का संपर्क रहने से उसकी श्रद्धा में विपरीतता आ गई थी । इसी तरह भगवान पार्श्वनाथ के पास से श्रावक व्रत स्वीकार करने के बाद सोमल ब्राह्मण को साधुओं का संपर्क नहीं मिला और परिणाम स्वरूप वह भी पथभ्रष्ट हो गया था। इस लिए साधुओं को किसी स्थान विशेष से बंधकर नहीं रहना चाहिए, प्रत्युत उन्हें समभाव पूर्वक सभी क्षेत्रों को संभालते रहना चाहिए। इससे उनकी साधना भी शुद्धरूप से गतिशील रहती है और लोगों की श्रद्धा एवं चारित्र में भी अभिवृद्धि होती है। अब तृतीय अभिक्रान्त क्रिया का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम्-इह खलु पाईणं वा ४ संतेगइया सड्ढा भवंति, तंजहा-गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा तेसिं च णं आयारगोयरे नो सुनिसंते भवइ, तं सद्दहमाणेहिं, पत्तियमाणेहिं रोयमाणेहिं बहवे समण-माहण-अतिहि-किवणवणीमए समुद्दिस्स तत्थं २अगारीहिं अगाराइंचेइयाइं भवंति तंजहा-आएसणाणि वा आयतणाणि वा देवकुलाणि वा सहाओ वा पवाणि वा पणियगिहाणि वा पणियसालाओ वा जाणगिहाणि वा जाणसालाओ वा सुहाकम्मंताणि वा दब्भकम्मंताणि वा वद्धकं बक्कयकं० इंगालकम्म० कट्ठक० सुसाणक. सुण्णागारगिरिकंदरसंतिसेलोवट्ठाणकम्मंताणि वा भवणगिहाणि वा, जे भयंतारो तहप्पगाराइं आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा तेहिं उवयमाणेहिं उवयंति अयमाउसो ! अभिक्कंतकिरिया यावि भवइ ३ ॥८॥ ___ छाया- इह खलु प्राचीनं वा ४ सन्ति एकका श्राद्धा भवन्ति, तद्यथा-गृहपतिर्वा यावत् कर्मकर्यो वा तेषां च आचारगोचरः न सुनिशान्तो भवति, तत् श्रद्दधानः प्रतीयमानैः रोचमानैः बहवः श्रमण-ब्राह्मण-अतिथि-कृपण-वनीपकान् समुद्दिश्य तत्र २ अगारिभिः अगाराणि चेतितानि भवन्ति, तद्यथा- आदेशनानि वा आयतनानि वा देवकुलानि वा सभाः वा प्रपाः वा पण्यगृहाणि वा पण्यशालाः वा यानगृहाणि वा यानशालाः वा सुधाकर्मान्तानि वा दर्भकर्मान्तानि वा वर्धकर्मान्तानि वा वल्कजकर्मान्तानि वा अंगारकर्मान्तानि वा काष्ठकर्मान्तानि वा श्मशानकर्मान्तानि वा शून्यागारागिरि-कंदर शान्ति-शैलोपस्थानकर्मान्तानि वा भवनगृहाणि वा ये भयत्रातारः तथाप्रकाराणि आदेशनानि वा यावत् गृहाणि वा तैः अवपतद्भिः अवपतन्ति अयमायुष्मन् ! अभिक्रान्तक्रिया चापि भवति। पदार्थ- इह-प्रज्ञापक की अपेक्षा से। खलु-वाक्यालंकार में है। पाईणं-पूर्वादि दिशाओं में। १ ज्ञाता सूत्र, अध्या' १३। २ , पुफिया सूत्र।
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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