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________________ १७६ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध मूलार्थ-कई एक गृहस्थ शुचि धर्म वाले होते हैं, और साधु स्नानादि नहीं करते और विशेष कारण उपस्थित होने पर मोक का आचरण भी कर लेते हैं। अतः उनके वस्त्रों से आने वाली दुर्गन्ध गृहस्थ के लिए प्रतिकूल होती है। इस लिए वह गृहस्थ जो कार्य पहले करना है उसे पीछे करता है और जो कार्य पीछे करना है उसे पहले करने लगता है और भिक्षु के कारण भोजनादि क्रियाएं समय पर करे, या न करे। इसी प्रकार भिक्षु भी प्रत्युपेक्षणादि क्रियाएं समय पर नहीं कर सकेगा, अथवा सर्वथा ही नहीं करेगा। इसलिए तीर्थंकरादि ने भिक्षुओं को पहले ही यह उपदेश दिया है कि वे इस प्रकार के उपाश्रय में न ठहरें। हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में गृहस्थ एवं साधु जीवन के रहन-सहन का अन्तर बताते हुए कहा है कि कुछ गृहस्थ शुद्धि वाले होते हैं। वे स्नान आदि से अपने शरीर को शुद्ध बनाने में ही व्यस्त रहते हैं और साधु सदा आत्मशुद्धि में संलग्न रहता है। वह ज्ञान रूपी सागर की अनन्त गहराई में डुबकियां लगाता रहता है। वह गृहस्थों की तरह स्नान आदि नहीं करता और यदि कभी उसके शरीर पर घाव आदि हो जाता है तो वह औषध के रूप में अपने मूत्र का प्रयोग करके उस घाव को ठीक कर लेता है। इस तरह उसका आचरण गृहस्थ से भिन्न होता है। इसलिए अधिक शौच का ध्यान रखने वाला व्यक्ति मुनि के जीवन को देखकर उससे घृणा कर सकता है। और इस कारण वह गृहस्थ साधु के कारण अपनी क्रियाओं को आगे-पीछे कर सकता है और साधु भी गृहस्थों के संकोच से अपनी आवश्यक क्रियाओं को यथासमय करने में असमर्थ हो जाता है। इस तरह गृहस्थ के कारण साधु की साधना में अन्तराय पड़ती है और साधु के कारण गृहस्थ के दैनिक कार्यों में विघ्न होता है, इससे दोनों के मन में चिन्ता एवं एक-दूसरे के प्रति कुछ बुरे भाव भी आ सकते हैं। अतः मुनि को गृहस्थ के साथ नहीं ठहरना चाहिए। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'मोय समायारे' का पाठ भी विचारणीय है। वृतिकार ने इसका अर्थ कायिक मूत्र माना है। परन्तु, वृत्तिकार ने उसके आचरण करने के विशिष्ट कारण का भी उल्लेख नहीं किया है और उसके पीछे किसी तरह का विशेषण नहीं होने से यह भी स्पष्ट नहीं होता कि वह मूत्र सामान्य है या विशिष्ट? मूत्र सामान्य की अपेक्षा से गो मूत्र का भी ग्रहण हो सकता है और उसे वैदिक एवं लौकिक परम्परा में भी अशुद्ध नहीं माना है। इसके अतिरिक्त 'मोय' शब्द के संस्कृत में मोक, मोच और मोद तीन रूप बनते हैं। इस अपेक्षा से 'मोय समायारे' की संस्कृत छाया 'मोद समाचारः' बनेगी और इसका अर्थ होगा-प्रसन्नता पूर्वक स्नान का त्याग करने वाला। अर्थात्-ज्ञान के पवित्र सागर में गोते लगाने वाला मुनि । महाभारत आदि ग्रन्थों में भी मुनि के लिए बाह्य स्नान के स्थान में अन्तर स्नान को महत्व दिया गया है। क्योंकि पानी से केवल शरीर की शुद्धि होती है, आत्मा की शुद्धि नहीं होती। १. इसका यह अर्थ नहीं है कि वह पानी से नफरत करता है या शरीर को अशुचि से आवृत्त रखता है। वह अशुचि दूर करने के लिए अचित्त जल का उपयोग भी करता है। परन्तु वह बिना किसी प्रयोजन के केवल श्रृंगार के लिए स्नान आदि नहीं करता। २. वैदिक परम्परा में अशुद्धि को दूर करने तथा पाप आदि की निवृत्ति के लिए पंचगव्य का पान करना श्रेष्ठ माना है और प्रसूता स्त्री को गोमूत्र का पान करा कर या गोमूत्र प्रधान पंचगव्य से स्नान कराकर शुद्ध करने की प्रथा अभी भी प्रचलित
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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