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द्वितीय अध्ययन शय्यैषणा
द्वितीय उद्देशक
प्रथम उद्देशक में उपाश्रय के दोषों का वर्णन किया गया है, और प्रस्तुत उद्देशक में निवास स्थान संबन्धी कुछ विशेष दोषों का उल्लेख किया है। साधु को स्त्री-पशु एवं नपुंसक से युक्त मकान में क्यों नहीं ठहरना चाहिए, इसका स्पष्टीकरण करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्- गाहावई नामेगे सुइसमायारा भवंति, सेभिक्खूय असिणाणए मोयसमायारे, से तग्गंधे दुग्गंधे पडिकूले पडिलोमे यावि भवइ, जं पुव्वंकम्म तं पच्छाकम्मं जं पच्छाकम्मं तं पुरेकम्म, तंभिक्खू पडियाए वट्टमाणा करिजा वा नो करिजा वा अह भिक्खूणं पु० ज० तहप्पगारे उ० नो ठाणं०॥७२॥
छाया-गृहपतयो नामैके शुचिसमाचारा भवन्ति, स भिक्षुश्च अस्नानतया मोकसमाचारः स तद्गन्धः दुर्गन्धः प्रतिकूलः प्रतिलोमश्चापि भवति, यत् पूर्वकर्म तत् पश्चात्कर्म यत् पश्चात्कर्म तत् पुराकर्म तद् भिक्षुप्रतिज्ञया वर्तमानाः कुर्युः वा नो कुर्युः वा अथ भिक्षूणां पूर्वोपदिष्टमेतत् यत् तथाप्रकारे उपाश्रये नो स्थानं वा ३ कुर्यात्।
पदार्थ- नाम-संभावनार्थक है अथवा आमन्त्रण अर्थ में आता है। एगे-कई एक। गाहावईगृहपति-गृहस्थ लोग। सुइसमायारा-शुचि धर्म के मानने वाले। भवंति-होते हैं। य-और। से-वह। भिक्खूभिक्षु। असिणाणए-स्नान न करने से और। मोयसमायारे-मोक प्रतिमा का आचरण करने से। से-वह भिक्षु। तग्गंधे-तद्गन्ध वाला और। दुग्गंधे-दुर्गन्ध वाला।पडिकूले-प्रतिकूल और।पडिलोमे यावि भवइ-प्रतिलोम होता है, अतः।जं पुव्वंकम्म-गृहस्थ साधु के कारण से जो पहले कार्य करना है। तं पच्छाकम्मं-उसे पीछे करने लगता है। जं पच्छाकम्म-जो पीछे कर्म करना है। तं पुरेकम्मं-उसे पहले करने लगता है। तं भिक्खुपडियाएवह भिक्षु के कारण से भोजन आदि क्रिया प्राप्त काल में। वट्टमाणा-वर्तता हुआ।करिजा वा-आगे-पीछे करे अथवा। नो करिज्जा वा-न करे, तथा साधु गृहस्थ के कारण से प्रत्युपेक्षणादि क्रिया आगे-पीछे करने लगे अथवा कालातिक्रम करके क्रिया करे या कम करे या सर्वथा ही न करे। अह-अतः। भिक्खूणं-भिक्षुओं को। पु०तीर्थंकरों ने पहले ही यह उपदेश दिया है। जं-जो। तहप्पगारे-साधु तथाप्रकार के। उवस्सए-उपाश्रय में। नो ठाणं०-न ठहरे।