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________________ द्वितीय अध्ययन, उद्देशक २ १७७ आत्मशुद्धि के लिए ज्ञान एवं तप-त्याग का स्नान ही आवश्यक माना गया है। इस तरह 'मोय' का संस्कृत रूप मोद मान लेने पर अर्थ में किसी तरह की असंगति नहीं रहती है। उत्तराध्ययन सूत्र में भी 'मोय' शब्द का 'मोद' के अर्थ में प्रयोग किया गया है। उसमें बताया गया है कि जैसे पक्षी स्वेच्छा पूर्वक आकाश में उड़ानें भरता है, उसी तरह काम - भोग का परित्याग करके लघुभूत बना हुआ मुनि 'अमोयमाणाप्रमोदमना' अर्थात् प्रसन्नता पूर्वक देश में विचरण करे। इस तरह 'मोय' शब्द का प्रसन्नता अर्थ ही अधिक संगत एवं उपयुक्त प्रतीत होता है । इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम् - आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावईहिं सद्धिं सं० इह खलु गाहवइस्स अप्पणो सयट्ठाए विरूवरूवे भोयणजाए उवक्खडिए सिया, अह पच्छा भिक्खुपडियाए असणं वा ४ उवक्खडिज्ज वा उवकरिज्ज वा, तं च भिक्खू अभिकंखिजा भुत्त वा पायए वा, वियट्टित्तए वा अह भि० जं नो तह० ॥ ७३ ॥ आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावइणा सद्धिं संक इह खलु गाहावइस्स अपणो सयट्ठाए विरूवरूवाइं दारुयाइं भिन्नपुव्वाइं भवंति, अह पच्छा भिक्खुपडियाए विरूवरूवाइं दारुयाइं भिंदिज्ज वा किणिज्ज वा पामिच्चेज्ज वा दारुणा वा दारुपरिणामं कट्टु अगणिकायं उ० प०, तत्थ भिक्खू अभिकंखिज्जा आयावित्तए वा पयावित्तए वा वियट्टित्तए वा, अह भिक्खू० जं नो तहप्पगारे० ॥७४॥ छाया- - आदानमेतद् भिक्षोः गृहपतिभिः सार्द्धं संवसतः, इह खलु गृहपतिना आत्मना स्वार्थं विरूपरूपं भोजनजातं उपस्कृतं स्यात्, अथ पश्चाद् भिक्षुप्रतिज्ञया अशनं वा ४ उपस्कुर्यात् वा उपकुर्यात् वा तं च भिक्षुः अभिकांक्षेद् भोक्तुं वा पातुं वा विवर्तितुं वा, अथ भिक्षु यत् नो तथाप्रकारे उपाश्रये स्थानं वा ३ चेतयेत् ॥ ७३ ॥ आदानमेतद् भिक्षोः गृहपतिना सार्द्धं संवसतः, इह खलु गृहपतिना आत्मना स्वार्थाय विरूपरूपाणि दारूणि भिन्नपूर्वाणि भवन्ति, अथ पश्चाद् भिक्षुप्रतिज्ञया विरूपरूपाणि दारुकाणि भिंद्याद् वा क्रीणीयाद् वा अपमिमीत दारुणा वा दारुपरिणामं कृत्वा अग्निकार्य, उज्ज्वालयेत् प्रज्वालयेत् वा तत्र भिक्षुः अभिकांक्षेत् आतापयितुं वा परितापयितुं वा, विवर्तितुं वा, अथ भिक्षुः यत् तथाप्रकारे उपाश्रये नो स्थानादि चेतयेत् कुर्यात् ॥ ७४ ॥ १ ज्ञान पाल परिक्षिप्ते ब्रह्मचर्य दयाम्भसि स्नात्वाति विमले तीर्थे पाप पंकापहारिणि । - स्याद्वादमंजरी, कारिका ११ (व्याख्या) तत्राभिषेकं कुरु पांडुपुत्र ! न वारिणा शुद्ध्यति चान्तरात्मा । २ उत्तरा० अ० १४ गा० ४४
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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