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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक १
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उपदेश किया है। जं-जो कि । तहप्पगारे - तथाप्रकार के । उवस्सए - उपाश्रय में। ठाणं वा ३ भिक्षु स्थानादि न करे-न ठहरे। एयं-यह। खलु निश्चय ही । तस्स उस । भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा - भिक्षु साधु या साध्वी का। सामग्गियं - यह सम्पूर्ण भिक्षु-भाव भिक्षुत्व है। पढमा सिज्जा सम्मत्ता - पहली शय्या समाप्त हुई ।
मूलार्थ - भिक्षु को गृहस्थों के साथ बसने से निम्नलिखित दोष लग सकते हैं। जब वह गृहस्थों के साथ रहेगा तब उन गृहस्थों की गृहपत्नियां, उनकी पुत्रियां, पुत्रवधुएं, धायमाताएं, दासियां और अनुचरियां आपस में मिल कर यह वार्तालाप भी करने लगती हैं कि ये साधु मैथुन धर्म से सदा उपरत रहते हैं अर्थात् ये मैथुन क्रीड़ा नहीं करते। अतः इन्हें मैथुन सेवन करना नहीं कल्पता। परन्तु, जो कोई स्त्री इनके साथ मैथुन क्रीड़ा करती है, उसको बलवान, तेजस्वी, रूप वाला और कीर्तिमान, संग्राम में शूरवीर एवं दर्शनीय पुत्र की प्राप्ति होती है। इस प्रकार के शब्द को सुनकर उनमें से कोई एक पुत्र की इच्छा रखने वाली स्त्री उस तपस्वी भिक्षु को मैथुन सेवन के लिए तैयार कर लेवे। इस तरह की संभावना हो सकती है, इसलिए तीर्थंकरों ने ऐसे स्थान में ठहरने का निषेध किया है।
हिन्दी विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि गृहस्थ के साथ ठहरने से साधु के बह्मचर्य व्रत में दोष आ सकता है। क्योंकि साधु को अपने बीच में पाकर स्त्रियां उसकी ओर आकर्षित हो सकती हैं और पारस्परिक वार्तालाम से यह जानकर कि ब्रह्मचारी के संपर्क से होने वाला पुत्र बलवान एवं तेजस्वी होता है, तो पुत्र की अभिलाषा रखने वाली कोई स्त्री मुनि से मैथुन क्रीड़ा करने की प्रार्थना भी कर सकती है और अपने हाव-भाव से वह मुनि को भी इस कार्य के लिए तैयार कर सकती है। इस तरह महाव्रतों से गिरने की संभावना देखकर भगवान ने साधु को गृहस्थ के परिवार के साथ ठहरने का निषेध किया है। वस्तुतः देखा जाए तो वीर्य ही जीवन है। क्योंकि इस शरीर का निर्माण वीर्य से ही होता है। आगम में बताया गया है कि मनुष्य की अस्थि, मज्जा, केश एवं रोम का निर्माण पिता के वीर्य से होता है और मांस-मस्तक आदि का ढांचा माता के रुधिर (रज) से बनता है । अस्तु माता और पिता का जीवन जितना संयमित, नियमित एवं मर्यादित होगा उतना ही सन्तान का शरीर शक्तिसम्पन्न एवं तेजस्वी होगा । अतः जीवन को शक्तिसम्पन्न एवं तेजस्वी बनाए रखने के लिए वीर्य की सुरक्षा करना आवश्यक है । इसी कारण गृहस्थ के लिए भी स्वदारसन्तोष व्रत का उल्लेख किया गया है। स्वपत्नी के साथ भी मर्यादा से अधिक मैथुन का सेवन करना अपनी शक्ति का नाश करना एवं सन्तति का दुर्बल एवं रोगी बनाना है। असंयत एवं अमर्यादित जीवन चाहे गृहस्थ का हो या साधु का, किसी के लिए भी हितप्रद नहीं है । अतः साधु को अपने संयम एवं ब्रह्मचर्य की रक्षा में सदैव सावधान रहना चाहिए। क्योंकि ब्रह्मचर्य साधना का महत्वपूर्ण स्तम्भ है, इसलिए साधु को ऐसे स्थान में नहीं ठहरना चाहिए, जहां ब्रह्मचर्य के स्खलित होने की संभावना हो ।
प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'आउट्टित्तए, आउट्टिविज्जा' का प्राकृत महार्णव में आवृत करना, भुलाना, व्यवस्था करना, सम्मुख करना एवं तत्पर होना अर्थ किया है? और अर्द्धमागधी कोष में आउट
१. प्राकृत शब्द महार्णव, पृ० १३० ।