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________________ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध १६४ पकरेज्जा न करे। तंजहा- जैसे कि । उच्चारं वा उच्चार विष्ठा । पासवणं वा मूत्र । खेलं वा मुख की मैल । सिंघाणं वा नाक का मल । वंतं वा वान्ति-वमन । पित्तं वा- पित्त । पूयं वा पीप | सोणियं वा शोणितरुधिर या । अन्नयरं वा अन्य कोई। सरीरावयवं वा - शरीर का अवयव वहां पर परठे नहीं । केवली - केवली भगवान। बूया-कहते हैं। आयाणमेयं यह कर्म आने का मार्ग है। से तत्थ-यदि वह वहां पर। ऊसढं पगरेमाणेउच्चार आदि करता हुआ। पयलेज्ज वा २ - फिसल पड़ेगा या गिर पड़ेगा फिर से उसके । तत्थ - वहां पर । पयलमाणे वा- फिसलने अथवा । पवडमाणे वा-गिरने से। हत्थं वा - हाथ। जाव - यावत् । सीसं वा सिर या ।. कायंसि शरीर का । अन्नयरं वा- कोई इंदियजालं - अवयव विशेष । लूसिज्ज वा टूट जाएगा तथा । पाि वा ४- द्वीन्द्रिय आदि प्राणियों को । अभिहणेज्ज वा - विराधना होगी। जाव - यावत् । ववरोविज्ज वा विनाश होगा। अह-अतः । भिक्खूणं पुव्वोवदिट्ठा भगवान ने भिक्षुओं के लिए पहले ही आदेश दे रखा है कि । जंजो । तहप्पगारे - इस तरह के । उवस्सए - उपाश्रय में जो कि । अन्तलिक्खजाए- आकाश में अर्थात् ऊंचे स्थान में स्थित है। ठाणं वा ३ - कायोत्सर्गादि । नो चेइज्जा न करे और ऐसे उपाश्रय में न ठहरे। मूलार्थ - वह साधु या साध्वी उपाश्रय को जाने, जैसे कि जो उपाश्रय एक स्तम्भ पर है, मंचान पर है, माले पर है, प्रासाद पर दूसरी मंजिल पर या महल पर बना हुआ है, तथा इसी प्रकार के अन्य किसी ऊंचे स्थान पर स्थित है तो किसी असाधारण कारण के बिना, उक्त प्रकार के उपाश्रय में स्थानादि न करे। यदि कभी विशेष कारण से उसमें ठहरना पड़े तो वहां पर प्रासुक शीतल या उष्ण जल से, हाथ, पैर, आंख, दान्त और मुख आदि का एक या एक से अधिक बार प्रक्षालन न करे। वहां पर मल आदि का उत्सर्जन न करे यथा - उच्चार (विष्ठा) प्रस्त्रवण (मूत्र) मुख का मल, नाक का मल, वमन, पित्त, पूय, और रुधिर तथा शरीर के अन्य किसी अवयव के मल का वहां त्याग न करे। क्योंकि केवली भगवान ने इसे कर्म आने का मार्ग कहा है। यदि वह मलादि का उत्सर्ग करता हुआ फिसल पड़े या गिर पड़े, तो उसके फिसलने या गिरने पर उसके हाथ-पैर, मस्तक एवं शरीर के किसी भी भाग में चोट लग सकती है और उसके गिरने से स्थावर एवं त्रस प्राणियों का भी विनाश हो सकता है। अतः भिक्षुओं के लिए तीर्थंकरादि का पहले ही यह उपदेश है कि इस प्रकार के उपाश्रय में जो कि अन्तरिक्ष में अवस्थित है, साधु कायोत्सर्गादि न करे और न वहां ठहरे। हिन्दी विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में उपाश्रय के विषम स्थान में रहने का निषेध किया गया है। जो उपाश्रय एक स्तम्भ या मंचान पर स्थित हो और उसके ऊपर निःश्रेणी (लकड़ी की सीढ़ी) लगाकर चढ़ना पड़े, तो ऐसे स्थानों में बिना किसी विशेष कारण के नहीं ठहरना चाहिए। क्योंकि उस पर चढ़ने के लिए नि:श्रेणी लाने (लगाने) की व्यवस्था करनी होगी और उस पर से गिरने से शरीर पर चोट लगने या अन्य प्राणियों की हिंसा होने की सम्भावना रहती है। अतः जहां इस तरह के अनिष्ट की संभावना हो ऐसे विषम स्थानों में नहीं ठहरना चाहिए। प्रस्तुत सूत्र में अन्तरिक्षजात स्थानों में जो ठहरने का निषेध किया गया है, वह स्थान की विषमता के कारण किया गया है। यदि किसी उपाश्रय में ऊपर बने हुए आवासस्थल पर पहुंचने के लिए सुगम रास्ता है, उसमें गिरने आदि का भय नहीं है और ऊपर छत इतनी मजबूत है कि चलने-फिरने से
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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