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प्रथम अध्ययन, उद्देशक ११
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करनी चाहिए। एक वस्त्र रखने वाले मुनि को दो वस्त्रधारी मुनि की और दो वस्त्र सम्पन्न मुनि को तीन या बहुत वस्त्र रखने वाले मुनि की निन्दा नहीं करनी चाहिए। इसी तरह अचेलक मुनि को सवस्त्र मुनि का तिरस्कार नहीं करना चाहिए। साधु को निन्दा - चुगली से सर्वथा निवृत्त रहना चाहिए'। क्योंकि आत्मा का विकास निन्दा एवं चुगली से निवृत्त होने में है । साधना का महत्त्व आभ्यन्तर दोषों के त्याग में है, न कि केवल बाह्य साधना में। माता मरुदेवी एवं भरत चक्रवर्ती ने आभ्यन्तर दोषों का त्याग करके ही गृहस्थ के वेश में पूर्णता को प्राप्त किया था।
प्रस्तुत सूत्र में सात पिण्डैषणाओं का वर्णन करके अभिग्रह की संख्या सीमित कर दी है। सात से ज्यादा या कम अभिग्रह नहीं होते। और 'विहरंति' वर्तमान क्रिया का प्रयोग करके यह स्पष्ट कर दिया है कि चारित्र की साधना वर्तमान में ही होती है। ज्ञान एवं दर्शन पूर्व भव से भी साथ में आते हैं और एक गति से दूसरी गति में जाते समय भी रहते हैं । परन्तु, चारित्र न पूर्वभव से साथ में आता है और न साथ में जाता है। उसकी साधना-आराधना इसी भव में की जा सकती है।
ग्रह के सम्बन्ध में वृत्तिकार का मत है कि स्थविर कल्पी मुनि सात अभिग्रह स्वीकार कर सकता है और जिन कल्पी मुनि ५ अभिग्रह स्वीकार कर सकता है २ ।
आगमोदय समिति की प्रति में प्रस्तुत उद्देशक के अन्त में 'त्तिबेमि' नहीं दिया है। किन्तु, अन्य कई प्रतियों में 'त्तिबेमि' शब्द दिया है। 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझनी चाहिए ।
॥ ग्यारहवां उद्देशक समाप्त ॥
|| प्रथम अध्ययन समाप्त ॥
१ जेवि दुवत्थतिवत्थो बहुवत्थो अचेलओव्व संथरइ; न हु ते हीलंति परं सव्वेविअ ते जिणाणाए । २ अत्र च द्वये साधवो गच्छान्तर्गता गच्छविनिर्गताश्च तत्र गच्छान्तर्गतानां सप्तानामपि ग्रहणमनुज्ञातं, गच्छनिर्गतानां पुनरादयोर्द्वयोरग्रहः पंचस्वभिग्रह इति ।
- आचाराङ्ग वृत्ति ।