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________________ प्रथम अध्ययन, उद्देशक ११ १५३ पानैषणा है। ___ उक्त अभिग्रह जिनकल्प एवं स्थविरकल्प दोनों तरह के मुनियों के लिए हैं। तृत. व पिण्डैषणा में 'पडिग्गहधारी सिया पाणि पडिग्गहिए वा' तथा छठी पिण्डैषणा में, 'पाय परियावन्नं पाणि परियावन्नं' दो पदों का उल्लेख करके यह स्पष्ट कर दिया है कि दोनों ही कल्प वाले मुनि इन अभिग्रहों को ग्रहण कर सकते हैं। प्रस्तुत सूत्र में उस युग के गृहस्थों के रहन-सहन, आचार-विचार एवं उस युग की सभ्यता का स्पष्ट परिचय मिलता है। ऐतिहासिक अन्वेषकों के लिए प्रस्तुत सूत्र महत्त्वपूर्ण है। . 'उज्झित धर्म वाला' अर्थात् जिस आहार को कोई नहीं चाहता हो। इसका तात्पर्य इतना ही है कि जो अधिक मात्रा में होने के कारण विशेष उपयोग में नहीं आ रहा है। परन्तु, इसका यह अर्थ नहीं है कि वह पदार्थ खाने योग्य नहीं है। इस अभिग्रह का उद्देश्य यही है कि अधिक मात्रा में अवशिष्ट आहार में से ग्रहण करने से पश्चात्कर्म का दोष नहीं लगता है। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'बहुपरियावन्ने पाणीसु दगलेवे' का अर्थ है-यदि सचित्त जल से हाथ धोए हों, परन्तु हाथ धोने के बाद वह जल अचित्त हो गया है तो साधु उस व्यक्ति के हाथ से आहार ले सकता है। . "सयं वा जाइज्जा परो वा से दिजा" का तात्पर्य है- जिस प्रकार मुनि गृहस्थ से आहार की याचना करे उसी प्रकार गृहस्थ के लिए भी यह विधान है कि वह भक्ति एवं श्रद्धा पूर्वक साधु को आहार ग्रहण करने की प्रार्थना करे। . उक्त अभिग्रह ग्रहण करने वाले मुनि को अन्य मुनियों के साथ -जिन्होंने अभिग्रह नहीं किया है या पीछे से ग्रहण किया है, कैसा बर्ताव रखना चाहिए, इस संबंध में सूत्रकार कहते हैं मूलम्- इच्चेयासिं सत्तण्हं पिंडेसणाणं सत्तण्हं पाणेसणाणं अन्नयरं पडिमं पडिवजमाणे नो एवं वइज्जा-मिच्छा पडिवन्ना खलु एए भयंतारो, अहमेगे सम्म पडिवन्ने, जे एए भयंतारो एयाओ पडिमाओ पडिवजित्ता णं विहरंति, जो य अहमंसि एयं पडिमं पडिवज्जित्ताणं विहरामि सव्वेवि ते उ जिणाणाए उवट्ठिया अण्णुन्नसमाहीए, एवं च णं विहरंति,एयं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं ॥६३॥ छाया- इत्येतासां सप्तानां पिण्डैषणानां सप्तानां पानैषणानां अन्यतरां प्रतिमां प्रतिपद्यमानो नैतद् वदेत्, तद्यथा- मिथ्या प्रतिपन्नाः खलु एते भयत्रातारः (भगवन्तः) अहमेवैकः सम्यक प्रतिपन्नः ये एते भयत्रातारः एताः प्रतिमाः प्रतिपद्य विहरन्ति अहमस्मि एतां प्रतिमा प्रतिपद्य विहरामि सर्वेऽपि ते जिनाज्ञायां समुत्थिता अन्योऽन्यसमाधिना एवं च विहरन्ति । एवं खलु तस्य भिक्षोः भिक्षुक्या वा सामग्र्यम्। . पदार्थ- इच्चेयासिं-इस प्रकार ये। सत्तण्हं-सात। पिंडेसणाणं-पिंडैषणा और। सत्तण्हं
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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