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________________ १५२ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध पांचवीं पिण्डैषणा है। छठी पिण्डैषणा यह है- गृहस्थ ने अपने लिए अथवा किसी दूसरे के लिए बर्तन में से भोजन निकाला है परन्तु दूसरे ने अभी उसको ग्रहण नहीं किया है तो उस प्रकार का भोजन गृहस्थ के पात्र में हो या उसके हाथ में हो तो मिलने पर प्रासुक जानकर उसे ग्रहण कर ले। यह छठी पिण्डैषणा है। सातवीं पिंडैषणा यह है-वह साधु या साध्वी, जिसे बहुत से पशु-पक्षी मनुष्य-श्रमण (बौद्ध भिक्षु ) ब्राह्मण, अतिथि, कृपण और भिखारी लोग नहीं चाहते, तथाप्रकार के उज्झित धर्म वाले भोजन की स्वयं याचना करे अथवा गृहस्थ दे दे तो उसे प्रासुक जानकर ग्रहण कर ले, यह सातवीं पिंडैषणा है। इस प्रकार ये सात पिंडैषणाएं कही हैं। तथा अपर सात पानैषणा अर्थात् पानी की एषणाएं हैं। जैसे कि अलिप्त हाथ और अलिप्त भाजन आदि, शेष सब वर्णन पूर्व की भांति समझना चाहिए और चौथी पानैषणा में नानात्व का विशेष है। वह साधु या साध्वी पानी के विषय में जाने जैसे कि तिलादि का धोवन जिसके ग्रहण करने पर पश्चात्कर्म नहीं लगता है तो उसे प्रासुक जानकर ग्रहण कर ले।शेष पानैषणा पिंडैषणा की तरह जाननी चाहिए। हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में विशिष्ट अभिग्रहधारी मुनियों के सात पिंडैषणा एवं सात पानैषणा का वर्णन किया गया है। इसमें आहार एवं पानी ग्रहण करने के एक जैसे ही नियम हैं। ये सातों एषणाएं इस प्रकार हैं १-अलिप्त हाथ एवं अलिप्त पात्र से आहार ग्रहण करना प्रथम पिण्डैषणा है और अलिप्त हाथ एवं अलिप्त पात्र से पानी ग्रहण करना प्रथम पानैषणा है। २-लिप्त हाथ और लिप्त पात्र से आहार ग्रहण करना द्वितीय पिण्डैषणा है और ऐसी ही विधि से पानी ग्रहण करना द्वितीय पानैषणा है। .. ३-अलिप्त हाथ और लिप्त पात्र या लिप्त हाथ और अलिप्त पात्र से आहार एवं इसी विधि से पानी ग्रहण करना तृतीय पिण्ड एवं पानैषणा है। ४-साधु को आहार देने के बाद सचित्त जल से हाथ या पात्र आदि धोने या पुनः आहार बनाने आदि का पश्चात्कर्म नहीं करना चतुर्थ पिण्डैषणा है, इसी तरह पानी देने के बाद भी पश्चात् कर्म नहीं लगाना चतुर्थ पानैषणा है। इसमें तिल, तुष, यव (जौ) का धोवन, आयाम-जिस पानी में गर्म वस्तु ठण्डी की जाती है, कांजी का पानी और उष्ण जल आदि ६ प्रकार के प्रासुक जल का नाम निर्देश किया है। परन्तु उपलक्षण से अन्य प्रासुक पानी को भी समझ लेना चाहिए। ५-गृहस्थ ने अपने पात्र में खाद्य पदार्थ रखे हैं और उसके बाद वह सचित्त जल से हाथ धोता है, यदि हाथ धोने के बाद वह जल अचित्त रूप में परिवर्तित हो गया है तो मुनि उसके हाथ से आहार ले सकता है। इस तरह पानी भी ले सकता है, यह पांचवीं पिण्डैषणा एवं पानैषणा है। ६-गृहस्थ ने अपने या अन्य के खाने के लिए पात्र में खाद्य पदार्थ रखा है, परन्तु न स्वयं-ने खाया है और न अन्य ने ही खाया है, ऐसा आहार ग्रहण करने की प्रतिज्ञा करना छठी पिण्डैषणा है और ऐसा पानी लेने का संकल्प करना छठी पानैषणा है। ७-जिस आहार को बहुत से लोग खाने की इच्छा नहीं रखते हों ऐसा रूक्ष आहार लेने का संकल्प करना सातवीं पिण्डैषणा है। इसी तरह ऐसे पानी को ग्रहण करने की प्रतिज्ञा करना सातवीं
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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