________________
प्रथम अध्ययन, उद्देशक ११
१५१ द्विपद-चतुष्पद,(दो पैर और चार पैर वाले) श्रमण-शाक्यादि भिक्षु माहण-ब्राह्मण; अतिथि, कृपण और वणीमगभिखारी आदि। नावकंखंति-नहीं चाहते हैं। तहप्पगारं-तथा प्रकार का आहार। उज्झियधम्मियं-जिसको लोग नहीं चाहते ऐसे।भोयणजायं-भोजन को।सयं वा णं जाइजा-स्वयमेव गृहस्थ से याचना करे अथवा। से-उस साधु को। परो बा दिज्जा-गृहस्थ दे। जाव-यावत्-मिलने पर। पडिगाहिज्जा-प्रासुक जानकर ग्रहण कर ले। सत्तमा पिंडेसणा-यह सातवीं पिंडैषणा है। इच्चेयाओ-इस प्रकार ये। सत्त पिंडेसणाओ-सात पिंडैषणा कही गई हैं। अहावराओ-अब इसके अनन्तर। सत्त-सात। पाणेसणाओ-पानैषणा-पानी की एषणा कहते हैं। खलुनिश्चय ही। तत्थ-उन सात पानैषणाओं में से। इमा पढमा-यह पहली पानैषणा है। असंसढे हत्थे-असंसृष्ट हाथ-अलिप्त हाथ और।असंसठे मत्ते-अलिप्त पात्र है अर्थात् हाथ और पात्र दोनों ही अछूत हैं, इत्यादि। तं चेव भाणियव्वं-सब कुछ पूर्व कथित की भांति जानना।णवरं-इतना विशेष है कि। चउत्थाए-चौथी में। नाणत्तंनानात्व है, विशेषता है। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा-वह साधु या साध्वी।से जं०-गृहपति कुल में प्रवेश करने पर फिर इस प्रकार। पाणगजायं-पानी के विषय में। जाणिज्जा-जाने। तंजहा-जैसे कि। तिलोदगं वा ६तिलादि का धोवन। खलु-निश्चय ही। अस्सिं पडिग्गहियंसि-इसके ग्रहण करने में। अप्पे पच्छाकम्मेपश्चात्कर्म नहीं है। तहेव पडिगाहिज्जा-तो उसे उसी प्रकार प्रासुक जानकर ग्रहण कर ले।
मूलार्थ-संयमशील साधु सात पिण्डैषणाओं तथा सात पानैषणाओं को जाने। उन सातों में से पहली पिंडैषणा यह है कि अचित्त वस्तु से न हाथ लिप्त और न पात्र ही लिप्त है, तथा प्रकार के अलिप्त हाथ और अलिप्त पात्र से अशनादि चतुर्विध आहार की स्वयं याचना करे अथवा गृहस्थ दे तो उसे प्रासुक जानकर ग्रहण कर ले, यह प्रथम पिंडैषणा है, इसके अनन्तर दूसरी पिंडैषणा यह है कि अचित्त वस्तु से हाथ और भाजन लिप्त हैं तो पूर्ववत् प्रासुक जान कर उसे ग्रहण कर ले, यह दूसरी पिंडैषणा है। तदनन्तर तीसरी पिण्डैषणा कहते हैं - इस संसार या क्षेत्र में पूर्वादि चारों दिशाओं में बहुत पुरुष हैं उन में से कई एक श्रद्धालु-श्रद्धा वाले भी हैं, यथा गृहपति, गृहपत्नी यावत् उनके दास और दासी आदि रहते हैं। उनके वहां नानाविध भाजनों में भोजन रखा हुआ होता है यथा-थाल में, पिठर-बटलोही में, सरक [छाज जैसा ] में,टोकरी में और मणिजटित महार्घ पात्र में। फिर साधु यह जाने कि गृहस्थ का हाथ तो लिप्त नहीं है भाजन लिप्त है, अथवा हाथ लिप्त है, भाजन अलिप्त है, तब वह स्थविर कल्पी अथवा जिनकल्पी साधु प्रथम ही उसको देख कर कहे कि-हे आयुष्मन् गृहस्थ ! अथवा भगिनि ! तू मुझ को इस अलिप्त हाथ से और लिप्त भाजन से हमारे पात्र वा हाथ में वस्तु लाकर दे दे। तथा प्रकार के भोजन को स्वयं मांग ले अथवा बिना मांगे ही गृहस्थ लाकर दे तो उसे प्रासुक जानकर ग्रहण कर ले। यह तीसरी पिण्डैषणा है। अब चौथी पिण्डैषणा कहते हैं-वह भिक्षु तुषरहित शाल्यादि को यावत् भुग्न शाल्यादि के चावल को जिसमें पश्चात्कर्म नहीं है, और न तुषादि गिराने पड़ते हैं, इस प्रकार का भोजन स्वयं मांग ले या बिना मांगे गृहस्थ दें तो प्रासुक जान कर ले ले, यह चौथी पिण्डैषणा है। पांचवीं पिण्डैषणागृहस्थ ने सचित्त जल से हस्तादि को धोकर अपने खाने के लिए, सकोरे में, कांसे की थाली में अथवा मिट्टी के किसी भाजन में भोजन रक्खा हुआ है-उसके हाथ जो सचित्त जल से धोए थे अचित्त हो चुके हैं तथा प्रकार के अशनादि आहार को प्रासुक जानकर साधु ग्रहण कर ले, यह