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________________ १४२ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध लवणादि। किं-क्या।ते-तूने। जाणया-जानते हुए। दिन्नं-दिया है। उदाहु-अथवा।अजाणया-नहीं जानते हुए दिया है? से-वह गृहस्थ । भणेज्जा-कहे कि।खलु-निश्चय ही।मे-मैंने। जाणया-जानकर। नो-नहीं। दिन्नंदिया किन्तु।अजाणया-अनजानपने में। दिन्नं-दिया है।खलु-पूर्ववत्। काम-अतिशयार्थक अव्यय।आउसोहे आयुष्मन् ! श्रमण ! इयाणिं-इस समय।निसिरामि-तुम्हें देता हूँ या देती हूँ।तं-इसे तुम।भुञ्जह वा-खा लो। णं-वाक्यालंकार में है। वा-अथवा। परिभाएह-आपस में बांट लो।णं-पूर्ववत्।तं-वह।परेहि-गृहस्थों की ओर से। समणुन्नायं-आज्ञा मिलने पर। समणुसह्र-सम्यक् प्रकार से प्राप्त कर। तओ-तदनन्तर। संजयामेव-साधु यत्ता पूर्वक। भुंजिज्जा वा-खा ले अथवा। पिइज वा-पी ले। जं च-यदि वह। भोत्तए वा-खाने में तथा। पायए वा-पीने में। नो संचाएइ-समर्थ नहीं है। तत्थ-वहां पर। साहम्मिया-जो साधर्मिक साधु। वसंति-रहते हैं, जो। संभोइया-एक मांडले के संभोगी हैं। समणुन्ना-समनोज्ञ हैं तथा। अपरिहारिया-अपरिहार्य अर्थात् त्यागने योग्य नहीं हैं--निर्दोष हैं। अदूरगया-दूर भी नहीं-अर्थात् समीपवर्ती है। तेसिं-उनको। अणुप्पयायव्वं सिया-उनको प्रदान करना चाहिए यदि। जत्थ-जहां पर। साहम्मिया-साधर्मिक। नो-नहीं है तो। जहेव-जिस प्रकार। बहुपरियावन्नं-अधिक आहार मिलने पर जो परठने की विधि बताई है। कीरइ-पूर्व किया है। तहेव-उसी प्रकार। कायव्वं सिया-करना चाहिए। एवं खलु-इस प्रकार मुनि का समग्र आचार वर्णन किया है। मूलार्थ-यदि कोई गृहस्थ घर में भिक्षार्थ आए हुए भिक्षु को अंदर-घर में अपने पात्र में बिड़ अथवा उद्भिज लवण को विभक्त कर उसमें से कुछ निकाल कर साधु को दे तो तथा प्रकार लवणादि को गृहस्थ के पात्र में अथवा हाथ में अप्रासुक जानकर ग्रहण न करे। यदि कभी अकस्मात् वह ग्रहण कर लिया है तो मालूम होने पर गृहस्थ को समीपस्थ ही जानकर लवणादि को लेकर वहां जाए और वहां जाकर पहले दिखाए और कहे कि-हे आयुष्मन्! अथवा भगिनि ! तुमने यह लवण मुझे जानकर दिया है या बिना जाने दिया है ? यदि बह गृहस्थ कहे कि मैंने जानकर नहीं दिया, किन्तु भूल से दिया है। परन्तु, हे आयुष्मन् ! अब मैं तुम्हें जानकर दे रहा हूं, अब तुम्हारी इच्छा है-तुम स्वयं खाओ अथवा परस्पर में बांट लो।अस्तु, गृहस्थ की ओर से सम्यक् प्रकार से आज्ञा पाकर अपने स्थान पर चला जाए, और वहां जाकर यत्न पूर्वक खाए तथा पीए। यदि स्वयं खाने या पीने को असमर्थ हो तो जहां आस-पास में एक मांडले के संभोगी, समनोज्ञ और निर्दोष साधु रहते हों वहां जाए और उनको दे दे। यदि साधर्मिक पास में न हों तो जो परठने की विधि बताई है उसी के अनुसार परठ दे। इस प्रकार मुनि का आचार धर्म बताया गया है। हिन्दी विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि यदि किसी गृहस्थ ने साधु को भूल से अचित्त नमक दे दिया है तो साधु उस गृहस्थ से पूछे कि यह नमक तुमने भूल से दिया है या जानकर ? वह कहे कि मैंने दिया तो भूल से है, फिर भी मैंने आपको दे दिया है अतः अब आप इसे खा सकते हैं या अपने अन्य साधुओं को भी दे सकते हैं। ऐसा कहने पर वह साधु उस अचित्त नमक को यदि स्वयं खा सकता है तो स्वयं खा ले, अन्यथा अपने सांभोगिक, मनोज्ञ एवं चारित्रनिष्ठ साधुओं को बांट दे। यदि स्वयं एवं अन्य साधु नहीं खा सकते हों तो उसे एकान्त एवं प्रासुक स्थान में जाकर परठ दे। इसमें यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि नमक सचित्त होता है और उसके लिए अप्रासुक शब्द
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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