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________________ १४३ प्रथम अध्ययन, उद्देशक १० का प्रयोग भी हुआ है, फिर उस खाने एवं सांभोगिक साधुओं में विभक्त करने की आज्ञा कैसे दी गई ? इसका समाधान यह है कि आगम में जो खाने का आदेश दिया गया है, वह अचित्त नमक की अपेक्षा से दिया गया हैं। किसी शस्त्र के प्रयोग से जो नमक अचित हो गया है और वह भूल से आ गया है तो गृहस्थ को पूछकर उसके कहने पर साधु खा सकता है। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त अप्रासुक शब्द सचित्त के अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ है। इसका तात्पर्य इतना है कि भूल से आए हुए नमक के विषय में गृहस्थ से पूछकर यह निर्णय करे कि यह नमक भूल से दिया गया है या जानकर और यदि भूल से दिया गया है तो अब गृहस्थ की इसे खाने के लिए आज्ञा है या नहीं - आज्ञा लिए बिना साधु को उसे खाना नहीं कल्पता । अतः अप्रासुक शब्द सचित्त के अर्थ में नहीं, अपितु अकल्पनीय के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है और वह कब तक अकल्पनीय है इसकी स्पष्ट व्याख्या ऊपर कर चुके हैं। जैसे आचाराङ्ग में स्थित सचित्त एवं अकल्पनीय दोनों अर्थों में अप्रासुक शब्द का प्रयोग हुआ है उसी तरह दशवैकालिक सूत्र में अग्रहणीय सचित्त वस्तु एवं जो वस्तु लेने की इच्छा न हो उन दोनों के लिए 'न कप्पइ तारिसं' शब्द का प्रयोग हुआ है'। और भगवती सूत्र में भगवान महावीर ने सचित्त उड़द लिए भी अभक्ष्य शब्द का प्रयोग किया है और किसी गृहस्थ के द्वारा बिना याचना किए हुए उड़द को भी साधु के लिए अभक्ष्यं कहा है। इसी तरह थावच्चा पुत्र के शुकदेव संन्यासी को और भगवान पार्श्वनाथ ने सोमल ब्राह्मण की भी ऐसे शब्द कहे थे । इससे यह स्पष्ट होता है कि यह आगम की एक शैली रही है कि एक शब्द कई अर्थों में प्रयुक्त होता है । अतः यहां अप्रासुक शब्द अकल्पनीय अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। प्रस्तुत सूत्र से यह स्पष्ट होता है कि यदि कोई पदार्थ बिना इच्छा के भूल से आ गया है तो उसके लिए गृहस्थ से पूछकर उसकी आज्ञा मिलने पर उसे खा सकता है, उपने समान आचार-विचारनिष्ठ साधुओं को दे सकता है और उसे खाने में समर्थ न हो तो साधु मर्यादा के अनुसार आचारण कर सकता है। ''त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें । १ दशवैकालिक सूत्र ५, १,७९ । २ भगवती सूत्र १८, ॐ१० । ॥ दशम उद्देशक समाप्त ॥
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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