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________________ १४० श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध करेंगे और उसकी छाया से भी दूर रहेंगे। आचार्य शान्तिचन्द्र ने प्रस्तुत सूत्र की टीका में लिखा है कि मांसाहारी लोगों के अपवित्र शरीर को छूना तो दूर रहा, उनकी छाया तक को भी नहीं छुएंगे। अर्थात् उनकी छाया को स्पर्श करना भी पाप माना जाएगा। इससे बढ़कर मांसाहार के प्रति और अधिक क्या कहा जा सकता है ? इसे पढ़ने के पश्चात् क्या कोई समझदार व्यक्ति यह कल्पना कर सकता है कि इतने कड़े शब्दों में मांसाहार का विरोध करने वाले जैनागम साधु के लिए सामिष भोजन का विधान कर सकते हैं ? बिल्कुल नहीं। आगमों में चार गति मानी गई हैं - १-नरक, २-तिर्यञ्च, ३-मनुष्य और ४-देव गति। औपपातिक सूत्र में प्रत्येक गति में जाने के कारणों का उल्लेख किया गया है। उसमें मांस भक्षण को नरक गति का कारण बताया गया है। उत्तराध्ययन सूत्र में भी बताया गया है कि मांस मद्य का आहार करने वाला व्यक्ति अकाम मृत्यु को प्राप्त होकर नरक में जाता है । मृगापुत्र ने भी मांस एवं मद्य का सेवन करने से नरक गति का मिलना कहा है। ___ इन सब पाठों से यह स्पष्ट होता है कि आगम में सामिष भोजन का कड़े शब्दों में निषेध किया गया है। इसे मनुष्य का भोजन नहीं, अपितु पशु का भोजन कहा है। मांसाहार करने वाला खूखार भेड़िये से भी भयानक है, जो अपने आहार को छोड़कर अपने पेट को जीवित पशुओं की कब्र बनाता है। अतः इन सब उद्धरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त मांस एवं मत्स्य शब्द सामिष आहार से नहीं, अपितु फलों से सम्बन्धित है। अतः उक्त शब्दों का वनस्पति विशेष अर्थ करना ही उचित एवं आगम सम्मत प्रतीत होता है। १ तएणं ते मणुआ भरहं वासं परूढ़ रूक्खगुच्छ गुम्मगुम्मलयवल्लीतणपव्वंयह रिआ ओसहीयं उवचियतयपत्तपवालपल्लवंकुरपुष्फफलंसमुइअंसुहोवभोगंजायं २ चाव पासिहिन्ति पासित्ता बिलेहितो णिद्धाइस्संति णिद्धाइत्ता हठ्ठतुट्ठा अण्णमण्णं सहाविस्संति २ त्ता एवं वदिस्संति - जाते णं देवाणुप्पिया ! भरहे वासे परूढरुक्खगुच्छगुम्मलयवल्ली तणपव्ययहरिय जाव सुहोवभोगे, तं जे देवाणुप्पिया ! अम्हं केइ अज्जप्पभिइ असुभं कुणिमं आहारं आहारिस्सइ से णं अणेगाहिं छायाहिं वजणिज्जे त्ति कठ्ठ संठियं ठवेंति २ त्ता भरहे वासे सुहंसुहेणं अभिरममाणा २ विहरिस्संति। - जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति २, ३९ । २ आस्तां तेषामस्पृश्याना शरीरस्पर्शः तच्छरीरच्छायास्पर्शोपि वर्जनीयः। ३ चउहि ठाणेहिं जीवाणेरइयताए कम्मं पकरेंति,णेरइयत्ताए कम्मं पकरेत्ताणेरइएसु उववजंति, तंजहा१-महारंभयाए २-महापरिग्गहयाए ३-पंचिदियवहेणं ४-कुणिमाहारेणं। - औपपातिक सूत्र, भगवद्देशना। हिंसे बाले मुसावाई, माइल्ले पिसुणे सढे । भुंजमाणे सुरं मंसं, सेयमेयं त्ति मन्नई॥ - उत्तरा०५,९। इत्थीविसयगिद्धे य, महारंभ परिग्गहे। भुंजमाणे सुरं मंसं, परिवूढे परं दमे॥ अय कक्करभोई य, तुंदिल्ले चियलोहिए। आउयं नरयं कंखे, जहाएसं वा एलए॥ - उत्तरा०७,६,७। तुहं पियाई मंसाई, खंडाणि सोल्लगाणि य। खाइओ मिसमंसाइं, अग्गिवण्णाइऽणेगसो॥ तुहं पिया सुरा सीहू, मेरओ य महूणि य। पाइओमि जलन्तीओ, वसाओ रुहिराणि य॥ - उत्तरा, १९, ६९-७०।
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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