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प्रथम अध्ययन, उद्देशक १० उल्लेख होता।
आगमों से स्पष्ट होता है कि साधु के लिए मांस सर्वथा त्याज्य रहा है। आर्द्रकुमार ने मांसभक्षक बौद्ध भिक्षुओं का उपहास करते हुए कहा है
थूलं उरब्भं इह मारियाणं, उदिट्ठभत्तं च पगप्पएत्ता। तं लोण तेल्लेण उवक्खडेत्ता, सपिप्पलीयं पगरंति मंसं॥ तं भुञ्जमाणा पिसियं पभूयं, नो ओवलिप्पामु वयं रएणं। इच्चेव माहंसु अणजधम्मा, अणारिया बाल रसेसु गिद्धा ।। सव्वेसि जीवाण दयट्ठयाए, सावज्जदोसं परिवज्जयंता। तस्संकिणो इसिणो नायपुत्ता, उद्दिट्ठभत्तं परिवजयंति॥ भूयाभिसंकाए दुगुच्छमाणा, सव्वेसि पाणाण निहाय दण्डं।
तम्हा न भुञ्जन्ति तहप्पगार, एसोऽणुधम्मो इह संजयाणं ॥
आर्द्र कुमार का कथन जैन आचार-विचार को स्पष्ट कर देता है। वह बौद्ध-भिक्षुओं से कहता है कि आप बकरे का मांस खाकर भी अपने आप को पाप से लिप्त नहीं मानते। परन्तु, यह कैसे हो सकता है ? मांस भक्षण का कार्य तो स्पष्टतः अनार्य कर्म है। उसका सेवन करने वाला पाप कर्म के बन्ध से कैसे बच सकता है ? निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र भगवान महावीर के साधु कभी भी मांसाहार नहीं करते। आर्द्रकुमार की यह स्पष्ट आलोचना सुनकर बौद्ध भिक्षु चुप हो जाते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि जैन साधु मांसाहारी नहीं थे और न हैं। यदि जैन साधु स्वयं मांसाहार करते होते तो वे बौद्धों के सामिष भोजन की आलोचना नहीं करते। और यदि करने का दुःसाहस करते भी तो बौद्ध भिक्षु उन्हें सचोट उत्तर देने से कभी नहीं चूकते कि तुम भी तो सामिष भोजन करते हो, तुम कौन से पवित्र व्यक्ति हो। परन्तु, जैन मुनियों की कहीं ऐसी आलोचना नहीं की गई है। इससे स्पष्ट होता है कि जैन मुनि आमिष भोजन से सर्वथा निवृत्त हैं। आगम में तो मांसाहार को साधु के लिए तो क्या मनुष्य के लिए भी उपयुक्त नहीं बताया है। उसे मनुष्यों का नहीं पशुओं का, जंगली जानवरों का आहार कहा है।
जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में बताया गया है कि उत्सर्पिणी काल चक्र का पहला आरा समाप्त होकर जब दूसरा लगेगा तब ४९ दिन तक अनवरत वर्षा होगी। उससे पृथ्वी में सरसता आएगी और वह विविध वनस्पतियों से शस्य-श्यामला हो जाएगी। उस समय बिलों में रहने वाले मनुष्य बाहर आएंगे और फलफूल खाकर अत्यधिक प्रसन्न होंगे और यह सामाजिक नियम बनाएंगे कि आज तक हमने विवश होकर मांसाहार किया, परन्तु, अब कभी भी मांसाहार नहीं करेंगे। जो सामिष आहार करेगा उसका बहिष्कार
१ सूत्रकृतांग श्रुत २ अध्य३,३७,३८,४०,४१।
२ तिरिक्खजोणियाणंचउबिहेआहारे पन्नत्ते-तंजहाकंकोवमे,विलोवमे; पाणमंसोवमो, पुत्तमंसोवमे।मणुस्साणं चउबिहेआहारेपन्नत्तेतंजहा-असणेजावसातिमे।
- स्थानांगसूत्र,स्थान ४,३४०।