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प्रथम अध्ययन, उद्देशक १०
१३७ इसी ग्रंथ में आगे कहा गया है कि जो शंख, कुन्द, पुष्प और चन्द्र के समान श्वेत वर्ण की हो उसे अजा नामक महौषधि समझना चाहिए ।
इस तरह हम देख चुके हैं कि जैनागमों में ही नहीं, अपितु वैद्यक एवं अन्य ग्रन्थों में भी मांस, मत्स्य एवं पशु-पक्षी के वाचक शब्दों का वनस्पति अर्थ में प्रयोग हुआ है। अतः प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त मांस एवं मत्स्य शब्द वनस्पति वाचक हैं, न कि मांस और मछली के वाचक हैं। इससे स्पष्ट होता है कि उक्त शब्दों के आधार पर जैन मुनियों को मांस-मछली खाने वाला कहना नितान्त गलत है।
__ आचाराङ्ग सूत्र के आधार पर आचार्य शयंभव द्वारा रचित दशवैकालिक सूत्र में इस तरह का पाठ आता है। फलों के प्रकरण में अस्थि शब्द का गुठली के अर्थ में प्रयोग किया गया है। और ७वीं शताब्दी में होने वाले आचार्य हरिभद्र ने अस्थि का अर्थ फलों की गुठली एवं पुद्गल का अर्थ गुद्दा किया है। उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि यहां फलों के वर्णन का प्रसंग होने के कारण उक्त शब्द गुठली एवं गुद्दे के ही परिबोधक हैं और पुराने आचार्यों ने भी ऐसा ही अर्थ किया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि आचार्य हरिभद्र से पूर्व भी मांस एवं मत्स्य आदि शब्दों का वनस्पति अर्थ किया जाता था।
द्विरत्निमात्रां जानीयाद् , गोनसीं गोनसाकृतिम्। सक्षारां रोमशां मृद्वी, रसनेक्षुरसोपमाम्॥ एवं रूप रसां चापि, कृष्णकापोतिमादिशेत्। कृष्णसर्पस्य रूपेण, वाराहीकन्दसम्भवाम्॥ एकपर्णा महावीर्यां, भिन्नाञ्जनचयोपमाम्। छत्रातिच्छत्रके विद्यत, रक्षोने कन्दसंभवे॥ जरा मृत्युनिवारिण्यौ, श्वेतकापोतिसम्भवे। कान्तैौदिशभिः पत्रैर्मयूराङ्गरुहोपमैः॥
- कल्पद्रुम कोष ५९८ अजामहौषधिज्ञैया शंखकुन्देन्दुपाण्डुरा। - कल्पद्रुम कोष ५९८ बहु अट्ठियं पोग्गलं, अणिमिसं वा बहुकंटयं। उच्छिअंतिंदुअंबिल्लं, उच्छुखंडं च सिंबलिं॥ अप्पेसिया भोयणजाए, बहु उज्झिय धम्मियं। दितियं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं॥
- दशवकालिक ५, १,७३-७४। 'बहुअट्ठियं' त्ति सूत्रम् बह्वस्थि, पुद्गलं 'अनिमिषं वा' बहुकण्टकं । अयं किल कालाद्यपेक्षया ग्रहणे प्रतिषेधः अन्येत्वभिदधति - वनस्पत्यधिकारात् तथाविध फलाभिधाने एते इति। तथा चाह - 'अस्थिकं' अस्थिकवृक्षफलम्, 'तेन्दुकं तेंदुरुकीफलम्, विल्वम् इक्षुखण्डमिति च प्रतीते,शाल्मलिं वा बल्लादि फलिं वा। वा शब्दस्य व्यवहितः सम्बन्ध इति सूत्रार्थः । अत्रैव दोषमाह-'अप्पे'त्ति सूत्रम्, अल्पं स्याभोजनजातमत्रअपितु बहूज्झनधर्मकमेतत्। यतश्चैवमतोददती प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः।
- दशवैकालिक वृत्ति। ४ अन्येत्वभिदधति- वनस्पत्यधिकारात् तथाविध फलभिधाने एते इती।
- दशवकालिक सूत्र, वृत्ति।