SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३५ ९२ १०२ प्रथम अध्ययन, उद्देशक १० ब्राह्मणी, देवी, देवपुत्री असबर्ग वनस्पति १९८ जननी . पपड़ी १८८ नटी, धमनी नली-सुगन्धित द्रव्य १९९ इन उपर्युक्त नामों को देखते हुए, मनुष्य, पशु-पक्षी आदि के नामों से अनेकानेक वनस्पतियेंअभिहित हुई हैं। अतएव प्रस्तुत प्रकरण में भी शठ का अर्थ धूर्त कुटिल का वक्र और पिशुन का चुगलखोर अर्थ करना संगत नहीं है, किन्तु इन शब्दों के वनस्पति रूप अर्थ ही प्रसंगोचित हैं। भल्लूक आलू बुखारा मत्स्य पोई नामक वनस्पति कपोतिका मूली १०४ . इन प्रमाणों से यह भली-भांति सिद्ध हो जाता है कि- फलों के गुद्दे को मांस, और गुठली को अस्थि के नाम से निर्दिष्ट करना भी उस युग की प्रणाली रही है। ऊपर प्राचीन वैद्यक ग्रन्थों के प्रमाणों से अस्थि और मांस का गुठली और गुद्दे के अर्थ में प्रयुक्त होना प्रमाणित किया गया है। आयुर्वेद साहित्य के नवीन ग्रंथों में भी इस तरह का वर्णन मिलता है। देखिए हरिताल भस्म की विधि का वर्णन करते हुए ग्रंथकार लिखते हैं ___ तालं सुधा प्रस्तार नीरमग्नं, कूष्मांडमांसैः पुटितं विधाय। ___दहेदृशप्रस्थ वनोपलेषु, गुंजोन्मितं स्यात् सकलं ज्वरेषु ॥१॥ अर्थात् - हरिताल को चूने के पानी में रखने के अनन्तर कूष्मांड के मांस से (पेठे के गुद्दे से) सम्पुटित करके १० सेर बन्योपलों (पाथियों) में फूंक देने से उत्तम भस्म बन जाती है और उसकी १ रत्ति की मात्रा है तथा वह सभी प्रकार के ज्वरों को शान्त करने के लिए हितकर है। (सिद्ध भेषज मणिमाला ज्वराधिकार) इसमें कूष्मांड (पेठा) का 'मांस' उसके गुद्दे के अतिरिक्त अन्य कोई भी पदार्थ सम्भव नहीं हो सकता। तात्पर्य यह है कि उक्त श्लोक में मांस शब्द का प्रयोग गुद्दे के अर्थ में ही हुआ है। इसके अतिरिक्त संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ में भी मांस शब्द का गुद्दा अर्थ किया है । इस प्रकार वैद्यक के प्राचीन और अर्वाचीन ग्रन्थों से यह स्पष्ट सिद्ध हो गया है कि अस्थि और मांस ये लोक प्रसिद्ध अर्थ के ही बोधक नहीं अपितु गुठली और गुद्दे के भी बोधक हैं। दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते हैं कि इनका वाच्यार्थ केवल लोक प्रसिद्ध अर्थ अस्थि (हड्डी) और मांस (रुधिर निष्पन्न धातु) ही नहीं अपितु गुठली और गुद्दा भी होता है। - वृक्ष के कठिन भाग एवं फलों के बीज (गुठली) के लिए अस्थि शब्द का प्रयोग हम वैद्यक एवं जैन साहित्य में अनेक स्थलों पर देख चुके हैं। परन्तु, वैद्यक साहित्य में कपास के अंदर के कठिन भाग के लिए भी अस्थि शब्द का प्रयोग किया गया है। क्षेमकुतूहल में लिखा है-'कपास का फल अति उष्ण प्रकृति वाला कषाय एवं मधुर रस वाला और गुरु होता है। वह वात, कफ को दूर करने वाला तथा १ मांस (न.) १ गोश्त। २ मछली। ३ फल का गूदा।। -संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ, पृष्ठ ६५५।
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy