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________________ प्रथम अध्ययन, उद्देशक १० १२७ किसी तरह की स्वाद-लोलुपता को रखते हुए सब सांभोगिक साधुओं में सम विभाजन करके आहार करे । परन्तु, ऐसा न करे कि अच्छे-अच्छे पदार्थ स्वयं खा ले और बचे-खुचे पदार्थ अन्य साधुओं को देवे। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'मणुनं' और 'पंतेणं' पदों से सामूहिक आहार की परम्परा सिद्ध होती है। क्योंकि विविध प्रकार के सरस आहार की प्राप्ति अनेक घरों में ही हो सकती है। और अनेक घरों में कई साधुओं के लिए ही घूमा जाता है। केवल एक साधु के लिए एक-दो घर ही पर्याप्त होते हैं। इस तरह इस सूत्र से सामूहिक गोचरी का स्पष्ट निर्देशन मिलता है। ___ इस सूत्र में यह भी बताया गया है कि साधु को सदा सरल एवं स्पष्ट भाव रखना चाहिए। उसे अपने स्वाद एवं स्वार्थ के लिए किसी भी वस्तु को छुपाकर नहीं रखना चाहिए और गुरु एवं आचार्य आदि के सामने सभी पदार्थ इस तरह रखने चाहिएं कि वे आसानी से सभी पदार्थों को देख सकें । न तो उन्हें देखने में कोई कष्ट हो और न कोई पदार्थ उनकी दृष्टि से ओझल रह सके। ___ इस सूत्र से विशेष कारण होने पर गृहस्थ के घर में आहार करने की ध्वनि भी प्रस्फुटित होती है। यह ठीक है कि उस समय वह इतनी ईमानदारी एवं प्रामाणिकता रखे कि वह स्वयं ही सभी सरस पदार्थ न खा जाए। उस समय उस पर अपनी प्रामाणिकता को निभाने का बहुत बड़ा उत्तरदायित्व आ जाता है। परन्तु, विशेष परिस्थिति में गृहस्थ के घर में खाने का पूर्णतया निषेध नहीं है। आगम में इसकी आज्ञा भी दी गई है। साधु को किस तरह का आहार ग्रहण करना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते मूलम्- से भिक्खूवा० से जं. अतंरुच्छियंवा उच्छुगंडियंवा उच्छुचोयगं वा उच्छुमेरगंवा उच्छुसालगंवा, उच्छुडालगंवा, सिंबलिं वा सिंबलथालगंवा अस्सिं खलु पडिग्गहियंसि अप्पे भोयणजाए बहुउज्झियधम्मिए तहप्पगारं अंतरुच्छुयं वा अफा०॥से भिक्खूवा २ से जं. बहुअट्ठियं वा मंसंवा मच्छं वा बहुकंटयं अस्सिं खलु तहप्पगारं बहुअट्ठियं वा मंसं लाभे संते। से भिक्खू असंविभिागी न हु तस्स मोक्खो। - दशवकालिक सूत्र, ९, २ । सिया एगइओ लद्धं, विविहं पाणभोयणं। भद्दगं- भद्दगं भुच्चा, विवन्नं विरसमाहरे॥ जाणंतु ता इमे समणा, आययट्ठी अयं मुणी। संतुट्ठो सेवए पंतं, लूहवित्ती संतोसओ॥ पूयणट्ठा जसोकामी;माण संमाण कामए। बहुं पसवइ पावं, मायासल्लं च कुव्वइ॥ - दशवकालिक सूत्र, ५,२,३३-३५।
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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