________________
१२६
श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध निगृहयेत्।स एकतरः अन्यतरभोजनजातं प्रतिगृह्य भद्रकं भद्रकं भुक्त्वा विवर्णं विरसमाहरति, मातृस्थानं संस्पृशेत् न एवं कुर्यात्।
पदार्थ- से-वह। एगइओ-कोई एक भिक्षु। मणुन्नं-मनोज्ञ। भोयणजायं-भोजन को। पडिगाहित्ता-ग्रहण करके। पंतेण भोयणेण-नीरस भोजन से। परिच्छाएइ-आच्छादित करे।मा-मत। मेयंयह आहार। दाइयं संतं-दिखाने पर, फिर। दठूणं-देखकर। सयमाइए-स्वयं ही ले ले। आयरिए-आचार्य। वा-अथवा। जाव-यावत्। गणावच्छेयए-गणावच्छेदक। खलु-निश्चय ही। मे-मेरे को। कस्सइ-किसी भी भोजन का। किंचि-कुछ भी भाग। नो-नहीं। दायव्वं सिया-दें। ऐसा करने से भिक्षु। माइट्ठाणं-मातृस्थान का।संफासे-स्पर्श करता है अतः वह। एवं-इस प्रकार।नो करिजा-न करे।से-वह-भिक्षु।तं-उस आहार को। आयाए-लेकर। तत्थ-जहां आचार्य आदि गुरुजन हों वहां। गच्छिज्जा-जाए और वहां जाकर। पुव्वामेव-पहले ही। उत्ताणए-पसारे हुए। हत्थे-हाथ में। पडिग्गह-पात्र को। कटु-करके। इमं खलु-इमं खलुत्ति-यह पदार्थ यह है और यह पदार्थ यह है-इस प्रकार एक-एक करके सब पदार्थ। आलोइज्जा-दिखावे। किंचिविकिंचिन्मात्र भी। नो निगूहिज्जा-छिपावे नहीं। से-वह। एगइओ-कोई एक भिक्षु। अन्नयरं भोयणजायं-अन्य किसी प्रकार का भी भोजन। पडिगाहित्ता-ग्रहण करके और गृहस्थ के वहीं। भद्दयं भद्दयं-अच्छा-अच्छा भोजन। भुच्चा-खाकर के। विवन्नं विरसं-बचा हुआ विरस और निकृष्ट भोजन। आहरइ-निवास स्थान पर आचार्य के पास लाता है, ऐसा करने से। माइट्ठाणं-मातृ स्थान का। संफासे-सेवन करता है अतः भिक्षु को। एवं-इस प्रकार। नो-नहीं। करिजा-करना चाहिए।
मूलार्थ-यदि कोई मुनि भिक्षा में प्राप्त सरस, स्वादिष्ट आहार को आचार्य आदि न ले लेवें इस दृष्टि से उसे रूखे-सूखे आहार से छिपा कर रखता है, तो वह माया का सेवन करता है। अतः साधु को सरस एवं स्वादिष्ट आहार के लोभ में आकर ऐसा छल-कपट नहीं करना चाहिए। जैसा भी आहार प्राप्त हुआ हो उसे ज्यों का त्यों लाकर आचार्य आदि के सामने रख दे और झोली एवं पात्र को हाथ में ऊपर उठाकर एक-एक पदार्थ को बता दे कि मुझे अमुक-अमुक पदार्थ प्राप्त हुए हैं। इस तरह साधु को थोड़ा भी आहार छिपाकर नहीं रखना चाहिए।
यदि कोई साधु गृहस्थ के घर पर ही प्राप्त पदार्थों में से अच्छे-अच्छे पदार्थों को उदरस्थ करके बचे-खुचे पदार्थ आचार्य आदि के पास लेकर आता है, तो वह भी माया का सेवन करता है। अतः साधु को ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए।
हिन्दी विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में साधु जीवन की सरलता एवं स्पष्टता का दिग्दर्शन कराया गया है। इसमें बताया गया है कि साधु को अपने स्वादेन्द्रिय का परिपोषण करने के लिए सरस को न तो नीरस आहार से छुपाकर रखना चाहिए और न उसे गृहस्थ के घर में या मार्ग में ही उदरस्थ कर लेना चाहिए। साधु को चाहिए कि उसे गृहस्थ के घरों से जो भी आहार उपलब्ध हुआ है, उसमें किसी तरह की आसक्ति नहीं रखते हुए अपने-अपने स्थान पर ले आए और आहार के पात्र को अपने हाथ में ऊपर उठाकर आचार्य आदि से निवेदन करे कि मुझे भिक्षा में ये पदार्थ प्राप्त हुए हैं। परन्तु, उसे उसमें से थोड़ा सा भी छुपाना नहीं चाहिए। आगम में यह भी कहा गया है कि जो साधु प्राप्त पदार्थों का सबसे समान भाग नहीं देता है तो वह मुक्ति नहीं पा सकता। अतः साधु को चाहिए कि वह बिना किसी संकोच एवं बिना