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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
अर्थगत-जिज्ञासा-मोक्ष के अर्थ को जानने की जिज्ञासा-भावना। अरणक-भगवान महावीर के 10 श्रावकों (उपासकों) में से एक श्रावक। अरिहन्त-कर्म रूपी शत्रुओं का नाश करने वाले महापुरुष।
अवधि-ज्ञान-मन और इन्द्रियों की बिना सहायता के मर्यादित क्षेत्र में स्थित रूपी पदार्थों को स्पष्ट रूप से जानना-देखना।
अवमचेलक-स्वल्प एवं मर्यादित वस्त्र से युक्त। अवती-त्याग से रहित।
अवसर्पिणी-यह दस कोटा-कोटि सागरोपम का काल होता है, इसमें 6 आरे-समय का एक माप-होते हैं। इसके प्रत्येक आरे में सुख-समृद्धि, शरीर, संघयन, आयु आदि का ह्रास होता रहता है।
अविनाभाव-सम्बन्ध-जो सम्बन्ध एक-दूसरे के बिना रह नहीं सकता। जैसे-गुण और गुणी दोनों एक-दूसरे के अभाव में रह नहीं सकते।
असंयत-गृहस्थ या जो संयत-साधु नहीं है। असंवृत्त-संवर-आते हुए कर्म को रोकने की एक प्रक्रिया, से रहित है। असदभियोग-झूठा आरोप लगाना। असम्यक्-तत्त्वों एवं लोक स्वरूप के यथार्थ ज्ञान का अभाव। . .
असुरकाय-राक्षस, नीच जाति के देव। भवनपति, बाणव्यन्तर जाति के देवों को असुर कहते हैं।
अशाश्वत-क्षणिक, सदा नहीं रहने वाला। अहिंसा-किसी प्राणी का वध नहीं करना तथा उसे संक्लेश नहीं पहुँचाना। आगम-शास्त्र, सूत्र।
आचार्य हेमचन्द्र-12वीं शताब्दी के प्राकृत-संस्कृत के विद्वान जैनाचार्य, जो जैन शास्त्रों पर टीकाएं एवं जैन दर्शन, योग शास्त्र, व्याकरण, काव्य, जीवन-चरित आदि विभिन्न विषयों के अनेक ग्रन्थों के निर्माता थे।
आचाराङ्ग-भगवान महावीर द्वारा उपदिष्ट 12 अंग शास्त्रों में प्रथम शास्त्र,. जिसमें प्रायः साध्वाचार का उपदेश दिया गया है।