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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
अन्तेवासी-गुरु की सेवा में संलग्न रहने वाला या सदा गुरु की आज्ञा में विचरने वाला शिष्य।
अनन्त-जिसका कहीं अन्त नहीं आता।
अनन्त चतुष्क-आत्मा में 1-अनन्त ज्ञान, 2-अनन्त दर्शन, 3-अनन्त सुख और 4-अनन्त वीर्य (शक्ति) की सत्ता (अस्तित्व) रहती है। ___ अनन्य-आराम-जो मोक्ष-मार्ग या आत्म-साधना के अतिरिक्त अन्यत्र शान्ति या आराम का अनुभव नहीं करता या जिसे आत्म-साधना में ही आराम व शांति की अनुभूति होती है।
अनन्य दर्शी-यथार्थ द्रष्टा, आत्म-दर्शी। अन्य-लिंगी-जैनेतर साधु के वेश में। अनर्थ-गत-जिज्ञासा-संसार के स्वरूप को जानने की अभिलाषा।
अनाथी मुनि-भगवान महावीर के युग का एक श्रमण, जिसने मगधाधिपति श्रेणिक को जीवन का यथार्थ रहस्य बताया था, उसे प्रतिबोध दिया था।
अनादित्व-पदार्थ के अस्तित्व में आने की कोई आदि नहीं है, अर्थात् जो पदार्थ अनन्त काल से विद्यमान है, उसका कभी सर्वथा अभिनव निर्माण नहीं हुआ।
अनार्य देश-जहां के लोगों में आर्यत्व-अहिंसा, दया, प्रेम, स्नेह, सत्य आदि का अभाव था। जो कठोर हृदय वाले एवं निर्दयी तथा परपीड़न में आनन्द मनाने वाले थे।
अनावृत-खुला हुआ, नग्न, परदा या आवरण से रहित।
अनुकम्पा-किसी भी दुःखी प्राणी को पीड़ित देखकर आत्मा में कम्पन होना। दया-भाव जागृत होना।
अनुपभुक्त-जो पदार्थ अभी भोगा नहीं गया है। अनुभवन-अनुभूति या अनुभव होना।
अनुभाग बन्ध-बँधने वाले कर्मों का अनुभाग रस कैसा है? शुभ है या अशुभ,. मन्द है या तीव्र? इस तरह कर्म में रस के परिपाक को अनुभाग-बन्ध कहते हैं।