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________________ 892 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध मूलार्थ-भगवान महावीर, उन जीवों की वृत्ति व्यवछेद को दूर करते हुए और उनकी अप्रीति का परिहार करते हुए शनैः-शनैः चलते और किसी भी जीव की हिंसा न करते हुए आहार-पानी आदि की गवेषणा करते थे। हिन्दी-विवेचन __ प्रस्तुत गाथा पूर्व गाथा से संबद्ध है। इसमें बताया गया है कि यदि किसी गृहस्थ के द्वार पर पहले से कोई भिक्षु, श्रमण-ब्राह्मण आदि खड़ा होता तो भगवान उस घर में प्रवेश नहीं करते थे और वे इस प्रकार का भी आचरण नहीं करते थे जिससे उन्हें उनके प्रति अप्रीति पैदा हो, क्योंकि इस तरह के कार्य से उनकी वृत्ति का छेदन होता । और उनके मन में द्वेष की भावना भी पैदा होती। इसलिए भगवान उनको लांघकर किसी भी घर में नहीं जाते थे। यदि किसी व्यक्ति के द्वार पर पहले से ही कोई व्यक्ति खड़ा हो और वह अपना कार्य समाप्त करके वहां से चला न जाए, तब तक साधक का वहां जाना नीति एवं सभ्यता के अनुकूल भी नहीं है। लेकिन यहां तो अन्य भिक्षुओं के वृत्ति-विच्छेद का प्रसंग होने के कारण भगवान पूरी तरह से सावधान रहते थे। ____ इससे स्पष्ट है कि भगवान सभी प्राणियों के रक्षक थे। वे किसी भी प्राणी को पीड़ा नहीं पहुंचाते थे। इसलिए वे उन सब कार्यों से निवृत्त थे जो सावध थे एवं दूषित वृत्ति से किए जाते थे, क्योंकि दूषित वृत्ति से पाप कर्म का बन्ध होता है। आगम में बताया गया है कि क्रिया तीन तरह की होती है-1-प्रदोषिका क्रिया, 2-परितापिनी क्रिया और 3-प्राणातिपाति क्रिया। जैसे अपनी आत्मा पर द्वेष करना दूसरे को परिताप देना और अपनी एवं दूसरे दोनों की आत्मा को कष्ट देना यह 1. कतिणं भंते! किरियाओ पण्णत्ताओ? गोयमा! पंच किरियाओ पण्णत्ताओ तंजहा-काइया; अहिगरणिया, पादोसिया, परियावणिया, पाणातिवाय किरिया ॥1॥ काइयाणं भंते! किरिया कतिविहा पण्णत्ता? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा अणुवरय काइया य, दुप्पउत्त काइया य ॥2॥ अहिगरणियाणं भंते! किरिया कतिविहा पण्णत्ता? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा संजोयणाहिगरणिया य निव्वत्तणाहिगरणिया ॥3॥ पादोसियाणं भंते! किरिया कतिविहा पण्णत्ता? गोयमा! तिविहा पण्णत्ता, तंजहा-जेणं अप्पणो वा परस्स वा तदुभयस्स वा असुभं मणं वा धारेति से तं पादोसिया किरिया ॥4॥ पारियावणिया णं भंते! →
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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